Tuesday, February 12, 2019

क्या ध्वस्त हो चुका है भाजपा का सोशल मीडिया पर एक तरफा प्रभुत्व ? विभिन्न विषयों पर हुए ऑनलाइन वोटिंग के परिणामो ने किया इस बात को और पुख्ता .

एक आँसू भी हुकूमत के लिए खतरा है
तुमने देखा नहीं आँखों का समुंदर होना
- मुन्नवर राणा

पर ये समुंदर छलक रहे हैं
लहर तुम्हारी पलट रहे है
नब्ज़ टटोलते ऑनलाइन पोल
खोल रहे हुकुमत की पोल
- अपुन 

साल 2014 भारतीय राजनीती के लिए एक एतिहासिक साल रहा जब तीस साल बाद कोई राष्ट्रिय स्तर का राजनैतिक दल लोकसभा चुनाव में पूर्ण बहुमत के साथ केंद्र में सत्ता हासिल करने में सफल रहा और उस पूर्ण बहुमत के पीछे सोशल मीडिया का महत्वपूर्ण योगदान रहा , जो उस वक्त पूर्ण रूप से मोदी के पक्ष में दिखाई देता था .इसी सोशल मीडिया को हथियार बना कर गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी लोकसभा चुनावो में पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने में सफल रहे बल्कि लोकसभा चुनावो से पहले 2013 में अपने दम पर हिंदी बेल्ट के तीन बड़े राज्य राजस्थान , एमपी और छत्तीसगढ़ में हुए विधानसभा चुनावो में  प्रचंड बहुमत हासिल करने में सफल रहे और लोकसभा चुनावो के बाद, एक के बाद एक विधानसभा चुनावो में भी मोदी के नेतृत्व में भाजपा बहुमत हासिल करने में सफल रही और मार्च 2017 के उत्तरप्रदेश चुनावो में प्रचंड बहुमत हासिल करने में सफल रहे और सोशल मीडिया पर भी मोदी और भाजपा का दब दबा बरकरार रहा . 

परन्तु समय बदलते देर नही लगी , सत्ता विरोधी लहर सोशल मीडिया के माध्यम से प्रबल होती जा रही थी . 2018 में हिंदी बेल्ट के तीनो राज्यों के विधानसभा चुनावो में भाजपा को मिली करारी शिकस्त के चलते सोशल मीडिया का मौसम एक तरफा नहीं रहा और ना ही कोई 2014 वाली  "मोदी लहर" कायम है . सोशल मीडिया पर इस सत्ता विरोधी माहौल का निर्माण रातो रात नहीं हुआ है . गुजरात में एक राज्यसभा सीट को लेकर चले नाटकीय घटनाक्रम के बाद कांग्रेस को मिली जीत ने सन्गठन में फिर से जान फूंक दी ,उपचुनावों में मिल रही सफलताओं और कांग्रेस के बेहतर प्रदर्शन के पीछे सोशल मीडिया की जबर्दस्त भूमिका रही है .कांग्रेस पार्टी की सशक्त होती शेत्रिय-केन्द्रीय सोशल मीडिया टीम और सुधरते शेत्रिय सन्गठन एवं बूथ प्रबन्धन के चलते भी कांग्रेस गुजरात में बतौर विपक्ष अपनी मज़बूत स्थिति बना पाई और भाजपा अपने ही गढ़ में सो का आंकड़ा पार नहीं कर पाई . 16 विधानसभा सीटे गुजरात में ऐसी थी जो भाजपा केवल 200 से 2000 वोटो के मार्जिन से जीत पाई हैं. 

कर्नाटका में हुए विधानसभा चुनावो में भी भाजपा से कम सीटे हासिल करने के बावजूद भी भाजपा के मुकाबले 6 लाख 50 हज़ार से भी अधिक वोट अधिक मिले और शेत्रिय दल के साथ गठ्बन्धन की सरकार बनाने में कांग्रेस सफल रही .कर्नाटका में भी सात सीटे कांग्रेस सिर्फ 5000 से कम के मार्जिन से हारी हैं. गुजरात कर्नाटका राजस्थान एमपी और छत्तीसगढ़ के चुनावो पर अगर आप नज़र डालेंगे तो पता चलेगा की ऐसी सैंकड़ो विधानसभा शेत्र है जहाँ हार जीत का अंतर पाँच प्रतिशत से भी कम रहा है  .ये सभी आंकड़े स्पष्ट दिखलाते है की चुनावो में अब परिस्थतियाँ एक तरफा नहीं रही है , चाहे बूथ स्तर हो या सोशल मीडिया का शेत्र अब किसी भी एक विचारधारा का प्रभुत्व नहीं रह गया है . परिस्थितियाँ निरंतर बदल रही है . 

पर ये बदलती राजनैतिक परिस्थितियां तब और मुखर होकर सामने प्रकट हुई जब हाल ही के दिनों में फेसबुक और ट्विटर पर विभिन्न मीडिया चैनलों और कुछ सोशल मीडिया हस्तियों द्वारा विभिन्न विषयों पर कराए गये ऑनलाइन पोल्स के नतीजे बेहद चौकाने वाले निकले . विभिन्न विषयों पर कराए गए ऑनलाइन पोल्स साफ़ दर्शाते है की बतौर राजनैतिक विकल्प कांग्रेस अब मजबूत स्थिति में है और भाजपा के पक्ष में अब एकतरफा माहौल समाप्त हो चुका है या यूँ कहे तो भाजपा का ऑनलाइन - सोशल मीडिया एकाधिकार समाप्त हो चुका है. 

हाल ही के दिनों में फेसबुक और ट्विट्टर पर आयोजित किए गये ऑनलाइन -सोशल मीडिया मतदान (poll) के नतीजे चौकाने वाले थे . तो नज़र डालते हैं इन ऑनलाइन सोशल मीडिया पोल्स के आए चौकाने वाले नतीजों पर .



ओड़िसा रीडर का फेसबुक पोल - 
ओड़िसा की शेत्रिय ऑनलाइन न्यूज़ वेबसाइट
ओड़िसा रीडर द्वारा आयोजित किए गये इस फेसबुक ऑनलाइन मतदान में 22 हज़ार से भी अधिक लोगो ने ऑनलाइन मतदान किया . जिसमे ये सवाल पूछा गया की 2019 के लोकसभा चुनाव में किस राजनैतिक दल के पक्ष में मतदान करेंगे . भाजपा या कांग्रेस . इस मतदान के परिणाम चौकाने वाले थे क्यूंकि 52 फीसदी लोगो ने कांग्रेस के पक्ष में मतदान किया और मोदी के पक्ष में 48 फीसदी लोगो ने मतदान किया . यानी की तकरीबन 11400 से अधिक वोट कांग्रेस के पक्ष में पड़े .
पोल लिंक - http://tiny.cc/ynwj3y

                                                                                                                                                                              


एशिया नेट न्यूज़ का महा-फेसबुक पोल - 
दूसरा फेसबुक पोल दक्षिण भारत के सबसे बड़े न्यूज़ चैनलों  में से एक एशिया नेट न्यूज़ द्वारा आयोजित करवाया गया . इस पोल के नतीजे भी कांग्रेस पार्टी और राहुल गाँधी के पक्ष में रहे. 53 फीसदी लोगो ने राहुल गाँधी के पक्ष में मतदान किया. इस फेसबुक मतदान  में 2 लाख 70 हज़ार से भी अधिक फेसबुक यूज़र्स ने ऑनलाइन मतदान किआ और 53 फीसदी लोगो ने ,यानि की 1,43,000 फेसबुक यूज़र्स ने राहुल गाँधी के पक्ष में ऑनलाइन मतदान किया.     
पोल लिंक -  http://tiny.cc/4yvj3y
                           





जब मोदी भक्त विवेक अग्निहोत्री का करना पड़ा ट्विटर पर शर्मिंदगी का सामना -
👈सवाल - नरेंद्र मोदी और राहुल गाँधी के बीच अगर बहस होती है तो आप राहुल गाँधी को कितने वोट दोगे. 
जंग सिर्फ फेसबुक तक ही सिमित नहीं है.जानेमाने बॉलीवुड डायरेक्टर और मोदी समर्थक विवेक अग्निहोत्री भी इस बार अपने ऑनलाइन ट्विट्टर पोल के परिणामो से हैरान रह गए . सात फरवरी को ट्विट्टर पर उन्होंने ट्विट्टर पोल के माध्यम से सवाल किया की अगर नरेंद्र मोदी और राहुल गाँधी में कोई बहस या डिबेट होती है तो राहुल गाँधी को कितने नंबर मिलेंगे . इस ट्विटर पोल के परिणाम काफी चौकाने वाले थे क्यूंकि 56 फीसदी लोगो ने राहुल गाँधी को 100 अंक दे दिए. 89,827 यूजर्स ने इस ट्विट्टर पोल का हिस्सा बने और तकरीबन 50,000 लोगो से भी अधिक लोगो ने राहुल गाँधी के पक्ष में जबर्दस्त मतदान कर डाला. 
                          पोल लिंक -    https://bit.ly/2Spw6o7


इंडिया टुडे और आज तक ट्विट्टर पोल - जब मिली भक्तों को कड़ी टक्कर -  

विभिन्न हिंदी और अंग्रेजी मीडिया चैनलों द्वारा आयोजित ट्विटर पोल्स के परिणाम भी चौकाने वाले परिणाम दर्शा रहे थे . 6 फरवरी को आज तक और इंडिया टुडे द्वारा आयोजित ट्विट्टर पोल्स में जब पूछा गया की "क्या राहुल और प्रियंका की जोड़ी मोदी योगी को टक्कर दे पायेगी ?"  इस सवाल पर आजतक ट्विटर पोल पर साढ़े तेईस हज़ार से भी अधिक लोगो ने हिस्सा लिया और 51 फीसदी लोगो ने लोगो ने ये माना की राहुल प्रियंका की जोड़ी मोदी - योगी की जोड़ी को टक्कर दे सकती है और वहीँ इंडिया टुडे के ट्विट्टर पोल में  चार हज़ार छैसो से अधिक लोगो ने पोल में हिस्सा लिया और 54 फीसदी लोगो ने  राहुल और प्रियंका गाँधी के साझा नेतृत्व को  मोदी योगी की जोड़ी के सामने बतौर चुनौती स्वीकार नही किया .गौर करने वाली बात ये है की आजतक के पोल में तेईस हज़ार से अधिक लोगो ने मतदान किया वहीँ इंडिया टुडे के पोल में चार  हज़ार छह सो से थोड़े से अधिक लोगो ने मतदान किया . दोनों ट्विटर पोल्स के परिणामो को देख कर कहा जा सकता है की अब इस ऑनलाइन भीड़ का एक बहुत बड़ा तबका गाँधी परिवार और कांग्रेस की तरफ झुकाव दिखा रहा है , जो पाँच साल पहले लगभग गायब था . 

दोनों ट्विटर पोल्स के माध्यम से एक ही सवाल - क्या राहुल-प्रियंका की जोड़ी लोकसभा और उत्तरप्रदेश में मोदी-योगी की जोड़ी को कड़ी टक्कर दे पाएगी.

  पोल लिंक 
                                   https://twitter.com/aajtak/status/1093051437578444800?s=19                                                                                              https://twitter.com/IndiaToday/status/1093045653398306816?s=19
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पूर्वी उत्तरप्रदेश के सन्दर्भ में आयोजित ट्विटर पोल - 

24 जनवरी को आजतक और इंडिया टुडे द्वारा करवाए गए ऑनलाइन ट्विट्टर पोल में भी कड़ी टक्कर देखने को मिली , सवाल था की "क्या योगी आदित्यनाथ के गढ़ में प्रियंका बीजेपी के लिए खतरे की घंटी है ?" और ऑनलाइन भीड़ के एक बड़े तबके ने इस बात को स्वीकार किया की प्रियंका गाँधी , योगी आदित्यनाथ के लिए एक चुनावी चुनौती है जहाँ आजतक के पोल में सोलह हज़ार से भी अधिक लोगो ने हिस्सा लिया वहीँ इंडिया टुडे के पोल में ग्यारा हज़ार से भी अधिक लोगो ने हिस्सा लिया . परिणामो से एक रुझान स्पष्ट है की इस ऑनलाइन भीड़ में राय अब एक तरफा नही रही है और जनता विकल्प की तरफ रुझान दिखा रही है . 

सवाल - क्या योगीनाथ आदित्यनाथ के गढ़ में प्रियंका गाँधी की एंट्री एक खतरे की घंटी है ?


ट्विटर पोल लिंक - 
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टाइम्स नाउ के बिगड़ते ट्विटर पोल परिणाम - 

अब तक जो आपने ट्विट्टर पोल्स देखे , उन सभी ट्विट्टर पोल्स में मत विभाजन लगभग बराबर सा रहा था , परन्तु सबसे ज्यादा हैरान कर देने वाले परिणाम तो अंग्रेजी न्यूज़ चैनल टाइम्स नाउ द्वारा आयोजित ट्विटर पोल्स के रहे . इस अंग्रेजी न्यूज़ चैनल को गोदी मीडिया की श्रेणी में रखा जाता है क्यूंकि की जिस प्रकार की चर्चा और न्यूज़ अपडेट्स आपको इस चैनल पर देखने को मिलेगी वो अक्सर सत्ता में आसीन भाजपा - मोदी सरकार के पक्ष में ही प्रकाशित होती है , ये न्यूज़ चैनल एक दक्षिणपंथी न्यूज़ चैनल है जो केंद्र में मौजूद दक्षिणपंथी मोदी सरकार के पक्ष में खबरे प्रकाशित करता है और विपक्ष की भूमिका और नीतियों का धुर विरोधी रहता है . परन्तु इस बार ट्विटर पोल्स पर पासा पलट चुका था ,अक्सर इस न्यूज़ चैनल के ट्विटर पोल्स के परिणाम सत्तापक्ष के पक्ष में यानी की मोदी सरकार के पक्ष में ही रहते थे परन्तु 23 जनवरी से लेकर 7 फरवरी के बीच आयोजित करवाए गये ट्विटर पोल्स के परिणाम , मोदी सरकार के उमीदों से एक दम उलट रहे या कहें तो टाइम्स नाउ न्यूज़ चैनल के मोदी समर्थक जैसा परिणाम चाहते थे , वैसे नही रहे . 

28 जनवरी को राहुल गाँधी के न्यूनतम आय की गारंटी के सन्दर्भ में की गई नीतिगत घोषणा पर चलाए गये ट्विटर पोल में 64 फीसदी लोगो ने इसे एक "गेम चेनजर" अर्थार्त दशा और दिशा बदलने वाली क्रांतिकारी नीति बताया वहीँ मोदी सरकार द्वारा प्रस्तुत किए गए अंतरिम बजट के विषय पर 1 फरवरी को आयोजित किए गए ट्विटर पोल को 60 फीसदी लोगो ने इसे "जुमला" करार दिया . 28 फरवरी को आयोजित हुए न्यूनतम आय की गारंटी के सन्दर्भ में ट्विट्टर पोल पर जहाँ तेतीस हज़ार आठ सो यूज़र्स से भी अधिक यूज़र्स ने हिस्सा लिया,वहीँ मोदी सरकार द्वारा प्रस्तुत किए गए अंतरिम बजट के सन्दर्भ में आयोजित ट्विट्टर पोल में अठारह हज़ार नोसो से भी अधिक यूज़र्स ने अपना मतदान किया .


ट्विटर पोल लिंक 


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जब डीएनए ट्विटर पोल का डीएनए बिगड़ गया .

ट्विटर पोल लिंक 
https://twitter.com/dna/status/1091302472650375168?s=19
👈सवाल - क्या आप अंतरिम बजट से खुश है ?
ट्विटर पर सरकार विरोधी पोलिंग सिर्फ टाइम्स नाउ के न्यूज़ चैनल तक सिमित नही रही जी न्यूज़ नेटवर्क के 
डी.एन.ए. ट्विटर पोल में भी अंतिम परिणाम सरकार के पक्ष में नही रहे , यहाँ भी 51 फीसदी यूज़र्स ने मोदी सरकार के अंतरिम बजट को नकार दिया . निश्चित तौर पर अब ये ऑनलाइन सोशल मीडिया भीड़ सरकार के पक्ष में कम , विपक्ष और विकल्प की तरफ अधिक झुकाव दिखा रही है . गौरतलब है की जी न्यूज़ भी एक गोदी मीडिया न्यूज़ चैनल की श्रेणी का न्यूज़ चैनल है . जिसकी मोदी भक्ति और दक्षिणपंथी प्रवर्ती किसी से नहीं छुपी है . 


प्रियंका गाँधी और बेरोजगारी के विषय पर भी इस न्यूज़ चैनल के मोदी भक्तों को होना पड़ा निराश. 

बात सिर्फ न्यूनतम आय गारंटी या अंतरिम बजट जैसे विषयों पर हो रहे ट्विटर पोल्स तक सिमित नही रही.
23 फरवरी को प्रियंका गाँधी के विषय पर और 31 जनवरी को बढ़ती बेरोजगारी के विषय पर भी जब टाइम्स नाउ ने ट्विट्टर पोल्स का आयोजित करवाए तो दोनों पोल्स में ज़बरदस्त वोटिंग हुई प्रियंका गाँधी के विषय में हुए ट्विटर पोल पर छप्पन हज़ार से भी अधिक यूज़र्स ने वोट किया और बेरोजगार के विषय पर आयोजित ट्विटर पोल पर चौतीस हज़ार से भी अधिक यूज़र्स  ने हिस्सा लिया और फिर से परिणाम एक तरफा रहे .

ट्विटर पोल लिंक 

सवाल-क्या प्रियंका गाँधी नरेंद्र मोदी                             सवाल-क्या मोदी सरकार बेरोजगारी के विषय पर
को चुनौती दे पाएंगी ?                                                   विफल रही है ?

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जब मोदी के बयान से जुड़े ट्विटर पोल पर हुई "असहमति " की महा मिलावट - 

7 फरवरी को आयोजित हुए इस टाइम्स नाउ के इस ट्विट्टर पोल पर मानो कहर टूट पड़ा हो . जब विपक्षी दलों पर दिए गए महामिलावट वाले बयान पर ट्विट्टर यूज़र्स ने जताई एक तरफा असहमति .13925 वोट में से तकरीबन 8450 यूज़र्स से भी अधिक यूज़र्स ने इस बयान के विरोध में वोटिंग की और टाइम्स नाउ के ट्विटर पोल पर असहमति की मिलावट कर दी और वो भी एकतरफा मिलावट . शायद इस मिलावट को देख टाइम्स नाउ चैनल की दक्षिणपंथी न्यूज़ एंकर एवं एडिटर नाविका की भक्ति में खलल ज़रूर पैदा हुआ होगा .

पोल लिंक 



निष्कर्ष - अभी तो ली अंगड़ाई है -

इन तमाम ट्विटर पोल्स और फेसबुक पोल्स के परिणामो पर नज़र डाले तो एक रुझान साफ़ झलक रहा है , इस देश का विपक्ष कम से कम सोशल मीडिया पर एक बड़े स्तर पर अप्रत्यक्ष रूप से संगठित हो रहा है ,जो बिखराव और विभाजन विपक्ष का सोशल मीडिया पर दिखाई देता था जो उदासीनता विपक्ष के खेमे से हमेशा उजागर होती थी वो उदासीनता ,वो बिखराव , वो विभाजन अब खत्म होता जा रहा है . जो सोशल मीडिया पर राहुल गाँधी , गाँधी परिवार और कांग्रेस को लेकर विपक्ष के खेमे में भी एक अस्वीकार्य का भाव था और एक असहमति का भाव था वो विचार और भाव अब खत्म हो चुका है . तीन राज्यों मे कांग्रेस की जीत ने सोशल मीडिया पर चल रहे भाजपा के प्रभुत्व को ध्वस्त कर दिया है , क्यूंकि संदेश साफ़ है - "की आप भाजपा को हरा सकते है " . 

और सबसे ज्यादा गौर फरमाने वाली घटना तो सोशल मीडिया पर घटित हो रही है - 
जहाँ एक पूर्ण रूप से सुनियोजित,एक पूर्ण रूप से संगठित और प्रायोजित "भाजपा आई टी सेल" , जो रोज़ मीडिया और सोशल मीडिया के माध्यम से नफरत , पूर्वाग्रह और फर्जी खबरे बेचता और साझा करता है , वो ताकतवर भगवा भाजपा आई टी सेल आज इस देश के असंगठित और गैर प्रायोजित सोशल मीडिया के सामने अपनी बढ़त खोता हुआ दिख रहा है.शायद इस असंगठित और गैर प्रायोजित सोशल मीडिया की ताकत का मोदी सरकार को अंदाज़ा नहीं है . याद रखिएगा की हमने आज़ादी की लड़ाई भी एक बहुत ही संगठित और पूंजीवाद से प्रयोजित साम्राज्यवादी ब्रिटिश हुकुमत से लड़ी थी और जब हम ब्रिटिश हुकुमत से लड़ सकते थे तो उसी ब्रिटिश हुकुमत या और सटीक बोले तो हिटलर हुकुमत के पद्दचिन्हों पर चलने वाली मोदी हुकुमत से क्यूँ नहीं लड़ सकते . हम लड़ेंगे और हम जीतेंगे . 


किस सोच में हैं आइने को आप देख कर
मेरी तरफ़ तो देखिए सरकार क्या हुआ ....

Tuesday, May 8, 2018

नफरत का विकल्प नफरत नही - आवश्यकता एक गैर-दक्षिणपंथ वैकल्पिक विचारधारा की .

साथियों तीन दिन पहले ट्विट्टर एक बारी फिर से राजनैतिक अखाड़े में तब्दील हो गया  
तीन दिन पहले पर प्रधानमंत्री मोदी के लेकर दो ट्रेंड चल रहे थे

1. #IHateModi

2.#WeLoveModi

ये दोनों ट्रेंड लगभग पूरे दिन तक ट्रेंड में रहे 

और एक बारी फिर से हम एक चक्रव्यूह में फसे ,मुझे नही पता कि ये ट्रेंड किसने कैसे कब क्यों शुरू किए पर पहले ट्रेंड( #IHateModi) में मोदी सरकार के खिलाफ बढ़ता आक्रोश,असहमति और नफरत दिखाई पड़ी और दूसरे ट्रेंड(#WeLoveModi) में मोदी विरोधियों के प्रति मोदी भक्तों ने नफरत और मोदी भक्तों की मोदी के प्रति भक्ति का जबर्दस्त शक्ति प्रदर्शन देखने को मिला , कुल मिला कर कहीं ना कहीं सोशल मीडिया में चर्चा जो है नफरत बनाम नफरत रही और एक व्यक्ति विशेष या कहें तो एक राजनेता के उपर आकर खड़ी हो गयी . 

पर इसका फायदा कहीं ना कहीं मोदी जी को ही होना है क्योंकि इसी नफरत के दम पर मोदी जी पनपे है उन्होंने हमारी नफरत को विचारधारा और उनके दक्षिणपंथी तंत्र की तरफ से घुमाकर स्वयं पर ला खड़ा किया अब हमारी नफरत उनके लिए एक पोषक तत्व का ही काम करती है क्योंकि भाजपा आई टी सेल और गोदी मीडिया कहीं ना कहीं ये साबित करने में सफल रहते है की मोदी विरोधी देश द्रोहियों का जमावड़ा है वो हर चुनाव में पूरे विपक्ष को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से जन मानस में देश द्रोही घोषित करने में सक्षम और सफल रहते हैं .जबकी ध्रुव सक्सेना जैसे दर्जन भर गैर मुसलमान आईएसआई एजेंट उनकी पार्टी और पार्टी से जुड़े सन्गठन से पैदा हो रहे थे फिर भी देशभक्ति की जंग में वो हम पर भारी पड़ रहे हैं , क्योंकि हम कहीं ना कहीं राजनैतिक तौर पर एक वैकल्पिक विचारधारा ,राष्ट्रवाद या वैकल्पिक विकास के मॉडल को प्रस्तुत नही कर पा रहे हैं , उनकी दक्षिणपंथी विचारधारा जनमानस में एक भय पैदा करने में बेहद सक्षम रहती है की अगर "भाजपा या मोदी " हार गये तो हमारा धर्म और देश खतरे में होगा  . ये लोग प्रजातंत्र में असुरक्षा की भावना पैदा करते है , प्रजातंत्र के खिलाफ एक अविश्वास और असुरक्षा की भावना पैदा करते है ये एहसास दिलाकर की अगर हम हार गये तो देश के दुश्मन या धर्म के दुश्मन जीत जाएँगे . येही इनका दक्षिणपंथी  "संघ तंत्र " रात दिन करता है . असुरक्षा की भावना पैदा कर वोटर के मन में विपक्ष के प्रति नफरत और अविश्वास का भाव पैदा करना . इस सन्दर्भ में वो कोई भी मौका नही चूकते .

जो लोग संघ , भाजपा और अन्य दक्षिणपंथी संघठनों की विचारधारा से सहमत नही या उनकी विचारधारा को पसंद नही करते या उनका विरोध करते है उनसे ये निवेदन है की आप इस बात को पहचाने की ये लोग हमारी सांस्कृतिक विविधता , सहिष्णुता , वैचारिक विविधता से लेकर हमारे बुद्धिजीवी होने तक इन सभी पहलुओं से नफरत करते हैं और ये लोग बहुत तहे दिल से चाहते है की हम भी इनका विरोध करते करते इनके जैसे मुर्ख ,कुतर्की , कट्टरवादी , अंध भक्त हो जाये ताकि ये लोग पूरी दुनिया मे ये साबित कर सके की हम मोदी से नफरत नफरत करते करते देशद्रोही हो गए ताकि ये साबित हो जाये कि मोदी ही भारत है और संघ उसका शासक है .पूरे भाजपा का आईटी सेल और गोदी मीडिया इस ताक में रहता है की कब हम मोदी विरोध के चक्कर मे कुछ ऐसा बोल दे या कुछ ऐसी घटना को अंजाम दे ताकी पूरी कायनात में ये लोग प्रचार प्रसार कर दे की मोदी विरोध की आड़ में देशद्रोह को अंजाम दिया जा रहा है.

जिस तरह दक्षिणपंथी धड़ा बिना रुके बिना थके झूठ और प्रोपोगेंडा का विस्तार सोशल मीडिया पर करता है उसे काउंटर करने के लिए उतनी ही तेज़ी से सोशल मीडिया पर प्रयास होने अति आवश्यक है.परन्तु इस झूठ और प्रोपगैंडा को काउंटर करने के लिए हमे कुछ बातों से परहेज करना पड़ेगा और कुछ बातों पर ध्यान देना होगा 

1.शेत्रीय और स्थानीय नेतृत्व किसके हाथ में होगा इस पर किसी भी नकरात्मक सोशल मीडिया की चर्चा में उलझने से बचे .

2. सन्गठन से जुड़ी किसी भी नकरात्मक सोशल मीडिया चर्चा का हिस्सा ना बने 
    पर इसका मतलब ये कभी नही की आप सन्गठन में अगर कुछ नकरात्मक या गलत हो रहा है तो उस पर चर्चा ना करे ,
    चर्चा हो पर उस तरीके से नही जिस तरीके से आज कल हम टी वी पर डिबेट करते है निरर्थक और नकरात्मक .  
    संदेश ये भी जाना चाहिए की पार्टी के अंदर प्रजातंत्र पनप रहा है और कार्यकर्ता की भी सुनवाई है और पार्टी से जुड़े विभिन्न विषयों पर         एक सार्थक बहस होती है और सुनवाई भी है . 

3.दक्षिण पंथी विचारधारा का विरोध करते हुए अपनी विचारधारा और अपने संघठन को सोशल मीडिया के माध्यम से स्थापित करना और संगठन से जुड़ी गतिविधियों और मूल्यों का अधिक से अधिक प्रचार प्रसार करना ताकि सोशल मीडिया पर एक वैकल्पिक विचारधारा का लोगो को एहसास हो  .

याद रखिएगा उत्तरप्रदेश में भाजपा के पास 5 मुख्यमंत्री के चहरे थे पर उन्होंने या उनके कार्यकरक्ताओं ने कभी इस विषय पर समय बर्बाद किया ही नही की कौन मुख्यमंत्री होगा , उन्होंने अपने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की आड़ में सभी विपक्षियों को देशद्रोही दिखला जंग जीत ली और उत्तप्रदेश में ऑफलाइन और ऑनलाइन उनका एक सुनियोजित संगठित प्रयास रहा जिसके चलते उनको ज़बरदस्त जीत मिली. 


इस कद के व्यक्ति को हराने के लिए आपको ये समझना होगा की आप उनसे नफरत करके नही हरा सकते , आपको उनके तंत्र को समझकर तोड़ना होगा , अंग्रेज़ी में कहते है - हेट द सिस्टम , नॉट द पर्सन (hate the system not the person). अगर नफरत के प्रतीक से नफरत करोगे तो कभी नफरत पर फतह नही कर पाओगे , पर जैसे ही आप एक ऐसा तंत्र बना लेते है जिसकी संगत में आते है नफरत के समर्थक नफरत छोड़ दे या उनकी नफरत अपाहिज हो जाये तभी आप सही मायनों में नफरत और उसके प्रतीक पर फतह हासिल कर पाओगे . याद रखियेगा की भाजपा आई टी सेल और गोदी मीडिया कभी ये नही चाहेंगे की आप कभी अपने बारे में बात करे या जनता को उस प्रकार की रीति नीति का विवरण दे या एहसास करवाएं जो साहिष्णु और धर्मनिरपेक्ष हो और जो समावेशी समाजिक और आर्थिक विकास का मॉडल लोगों के ज़हन में उतार सके . 

वो लोगो के ज़हन में सिर्फ नफरत और पुर्वाग्रह को ही पनपने देना चाहते हैं उनका काम है सिर्फ नफरत बाट के वोट समेटना और विरोधियों के वोट तोड़ना.इस बात को ज़हन में बैठा लीजिये की भाजपा अब एक ईस्ट इंडिया कंपनी की तरह व्यवहार करने पर उतारू है और संघ ब्रिटिश साम्राज्यवादी सरकार की तरह पर आपको वैसे ही व्यवहार करना होगा जैसा हमने आज़ादी के आंदोलनों में किया था . याद रखियेगा आज़ादी के पहले और आज़ादी के बाद भी हमने अंग्रेज़ों से ना ही नस्लीय नफरत करी थी और ना ही कोई धार्मिक नफरत करी थी और हमारा देश उदाहरण बना एक सबसे बड़े अहिंसक आंदोलन का , आज़ादी के बाद भी अगर कोई ब्रिटिश नागरिक हमारे देश मे आते है तो हम उन्हें नस्लीय नफरत से नही देखते है ये जानते हुए भी की उनके शासन में घोर मानवीय त्रासदियाँ हुई है और भयंकर मानवधिकार उल्लंघन हुए हैं .

ठीक उसी तर्ज पर हमें मोदी सरकार के खिलाफ मोर्चा खड़ा करना है एक अहिंसात्मक आंदोलन की तर्ज पर जिसमे इनके साम्रज्यवाद सामन्तवाद साम्प्रदायिकता और फूट डालो राज करो के तंत्र को विफल करते हुए इनके शासन को खत्म करना है . याद रखिये मोदी शासन अब व्यवहार में एक ब्रिटिश साम्राज्यवाद जैसा विकराल रूप ले चुका है और साम्राज्यवाद के शासक कभी भी आंदोलन या विरोध प्रदर्शन करना पसंद नही करते और मोदी जी भी 2018 आते आते विरोध प्रदर्शनों और आंदोलनों के बारे में येही विचार रख चुके हैं . साम्राज्यवाद की खुमारी है और येही खुमारी एक अघोषित आपातकाल का रूप ले रही है और इस अघोषित आपातकाल को  सिर्फ एक सशक्त वैकल्पिक विचारधारा ही समाप्त कर सकती है , बशर्ते उस विचारधारा का एहसास जनता के मन में अपनी सशक्त जगह बना सके.

Sunday, September 3, 2017

राहुल गांधी ,मोदी और कुत्ते का बिस्कुट

ये लेख लिखने की प्रेरणा मुझे एक राजनैतिक घटना और एक तस्वीर से मिली – तस्वीर को समझने के लिए , पहले घटना और उससे जुड़े राजनैतिक विश्लेषण को पढिये – अंत में तस्वीर देखोगे तो हसी जरुर आयेगी .
बात 2015 की है जब हेमन्त बिस्वा शर्मा राहुल गांधी से असम में विधानसभा चुनाव और नेतृत्व परिवर्तन के विषय पर मुलाकात करने गए थे , बताया ये जाता है कि इस राजनैतिक व्याख्यान और वार्ता के दौरान एक पालतू कुत्ता उनके सभा कक्ष में आता है और राहुल गांधी अपने पालतू कुत्ते को बिस्कुट खिलाने में ज्यादा व्यस्त हो जाते है औऱ उन्हें सिर्फ दो मिनट में हेमन्त बिस्वा शर्मा को अपना व्याख्यान पूरा करने को बोला जाता है ।।बताया ये भी जाता है इस मुलाकात के दौरान असम काँग्रेस के क्षेत्रीय नेताओं के बीच चल रहा राजनैतिक गृह युद्ध खुल कर सामने आ गया और आरोपों और प्रत्यारोपो का दौर शुरू हो गया । इन घटनाओ से और राहुल गांधी के अपरिपक्व व्यवहार से आहत होकर हेमन्त बिस्वा शर्मा असम कांग्रेस छोड़ भाजपा में शामिल हो गए और असम में भाजपा की जीत के सूत्रधार बने.

परन्तु इन सभी विवादों को परे रख हमे थोड़ा सा इतिहास कुरेद लेना चाहिए और वो इतिहास आपको याद दिलाएगा की किस तरह भाजपा ने "लुइस बर्गर रिश्वत कांड" में तत्कालीन कांग्रेस नेता ओर तत्कालीन असम सरकार के स्वास्थ्य मंत्री हेमंत बिस्वा शर्मा पर भ्रष्टाचार के आरोपो की झड़ी लगा दी थी ।।भ्रष्टाचार से जुड़े इन सभी विवादों के बीच गोगई सरकार ने 7 अगस्त 2015 को सीआईडी जांच के आदेश दिये परन्तु "बिस्वा के भ्रष्टाचार” ने राष्ट्रवादी भगवा चोगा स्वीकार किया और इन सभी विवादों को "बाईं पास" करते हुए वो 23 अगस्त 2015 को "भ्रष्टाचारी बिस्वा" से "भाजपाई बिस्वा" हो गए और असम विधानसभा में भाजपाई विजय रथ के संचालक बने और सफल रहे.

परन्तु इतिहास शायद अपने आपको फिर से दोहरा रहा है ,"भाजपाई बिस्वा" के भगवा दामन पर पुराने दाग फिर से प्रकट हो रहे है , हेमंता बिस्वा शर्मा को हाई कोर्ट से झटका लगा है ."लुइस बर्गर रिश्वत कांड" में हाई कोर्ट ने सीबीआई जाँच के आदेश दिए हैं । येही नही जांच में ढिलाई बरतने के लिए सीआईडी को हाई कोर्ट ने फटकार भी लगाई है ।।याद रखियेगा की 7 अगस्त 2015 को तत्कालीन गोगोई सरकार ने दिए थे हेमंत बिस्वा शर्मा के खिलाफ़ सीआईडी जांच के आदेश औऱ 23 अगस्त 2015 को कांग्रेस छोड़ भाजपा में शामिल हो गए थे हेमंत बिस्वा शर्मा .

अच्छा हुआ राहुल गांधी उस समय अपने पालतू कुत्ते को बिस्कुट खिलाने में व्यस्त हो गए , क्योंकि कांग्रेस के बहुत से क्षेत्रीय नेता "सत्ता का बिस्कुट" किसी भी परिस्थिति में हासिल करना चाहते हैं ,संवैधानिक पदों पर रहते हुए और पार्टी के पदों पर रहते हुए ये तथाकथित “शेत्रिय नेता” पार्टी और सरकार के संसाधनो का दरुपयोग तो करते ही हैं , भ्रष्टाचार के बीज बोकर अपनी जेब भरने के लिए खेती बाड़ी भी करते है और जब एहसास होता है की गाड़ी दल दल में फस चुकी है तो राहुल गाँधी को राजनैतिक रूप से “पप्पू “ घोषित करने की कहानियाँ गड़ते हैं और मौका मिलते है पार्टी के नेतृत्व पर कीचड़ उछाल , तड़ीपार का दामन थाम लेते हैं . 

अगर हेमंत बिसवा शर्मा की तथाकथित “कुत्ते के बिस्कुट “ वाली कहानी में इनती ही विश्वसनीयता है , तो राहुल गाँधी द्वारा घर वापसी के लिए भेजे गये निवेदन संदेश अर्थात SMS और उसके जवाब में भेजे गये संदेश (its too late ..) का कोई तो स्क्रीन शॉट या सबूत मीडिया में उजागर किया होता . आखिरकार हेमंत बिसवा शर्मा के स्वाभिमान पर चोट लगी थी , कहानी की विश्वसनीयता पर अगर सवाल खड़ा होगा तो कहीं बिसवा के स्वाभिमान की तुलना लोग नितीश कुमार अवसरवादी स्वाभिमान और अवसरवादी अंतरात्मा से ना करना शुरू कर दे . 

आश्चर्य की बात तो ये है की जो “तथाकथित आरोपित शेत्रिय नेता” कांग्रेस छोड़ भाजपा में जाते हैं ,ये “तथाकथित आरोपित शेत्रिय नेता” एक ऐसे राजनैतिक दल का दामन कैसे थाम लेते हो जो कुछ दिन पहले तक इनके उपर भ्रष्टाचार का आरोप लगा रहा थे , इनके खिलाफ जांच आयोग की मांग कर रहे थे पर जैसे ही ये “तथाकथित आरोपित शेत्रिय नेता” पाला बदलते है तो मानो वो सारे आरोप, वो सारी जाँच आयोग की मांगे और तथाकथित “मीडिया में हो रही इस विषय पर चर्चा “ भी ऐसे ही लापता हो जाती हैं जैसे “मिस्टर इंडिया” गायब होत था या मानो “भगवा राष्ट्रवाद की आड़ में उनका कोई नैतिक शुद्धिकरण “ हुआ हो. .
असम चुनावों से ठीक साल भर पहले तक हेमंत कुमार बिस्वा पर सारदा घोटाले और "लुइस बर्गर रिश्वत कांड" के आरोपों से घिर चुके थे .जरा याद कीजिये की किस तरह मीडिया ने ,खास तौर पर अर्नब गोस्वामी और सुधीर चौधरी जैसे तथाकथित राष्ट्रवादी पत्रकारों ने सारदा घोटाले और "लुइस बर्गर रिश्वत कांड" को मीडिया में उछाला था , पर जैसे ही “भ्रष्टाचारी बिसवा “ “भाजपाई बिसवा” हो गये तो तथा कथित राष्ट्रवादी मीडिया हेमंत कुमार बिसवा पर लगे सभी आरोपों वैसे ही भूल गया जैसे सर पर लगी चोट से यादाश्त चली जाती है.

कुछ इतनी ही दिलचस्प बहुगुणा परिवार की अवसरवादी राजनीती की कहानी है ,जो राहुल गाँधी को अपरिपक्व अर्थात पप्पू बोलने से शुरू हुई थी . जहाँ तक बात रही बहुगुणा परिवार की तो विजय बहुगुणा पर लगे भ्रष्टाचार के आरोप अब भाजपा को नही दिखाई देते क्यूंकि उत्तराखंड और उत्तप्रदेश में उनका पूरा परिवार भाजपा में अपना विलय कर चुका है और “विजय” रथ पर सवार है . जरा याद कीजिये वो दिन जब भाजपा ने बहुगुणा परिवार पर भ्रष्टाचार के आरोपों की बौछार कर दी थी और आज वो ही बहुगुणा परिवार उत्तराखंड की भाजपा इकाई में गृहयुद्ध की परिस्तिथियाँ पैदा कर रहे हैं .उत्तराखंड में टकराव भाजपाइयों और कांग्रेस की प्रष्टभूमि से आये भाजपाइयों में हो बढ़ता जा रहा है और भीतरघात की भी बू आ रही है। जरा सोचिये अब राष्ट्रवादी मीडिया को विजय बहुगुणा के शासन काल के दौरान लगे भ्रष्टाचार के आरोप नही दिखाई देते और ना ही इस राष्ट्रवादी मीडिया को ये दिखाई दे रहा है की किस तरह विजय बहुगुणा उत्तराखंड भाजपा में गुटबाजी फैला कर “बगावत “ के बीज बो रहे है , ऐसी हरकते वो कांग्रेस में थे जब भी करते थे और अब भाजपा में भी अपने विघटनकारी व्यवहार से भाजपा को तोड़ने में लगे है.

निश्चित तौर पर इस कांग्रेस युक्त भाजपा में आस्तीन के साँप बहुत हैं जो कांग्रेस की प्रष्टभूमि से पधारे हैं . किसमत की धनी है कांग्रेस की ऐसे अवसरवादी आस्तीन के सांप , राहुल गाँधी की अपरिपक्व राजननीति अर्थार्त पप्पू राजनीती के चलते भाजपा में चले गये . इस अपरिपक्व राजनीति का परिणाम सिर्फ चुनावी हार है , तो ये हार हमे स्वीकार है ,क्यूंकि येही चुनावी हार उन समर्पित कांग्रेस कार्यकर्ताओं को जनता के बीच अपनी विचारधारा को फिर से स्थापति करने का मौका फिर से देगी जो गाँधी , नेहरु , पटेल और बोस के अथक प्रयासों से स्थापित हुई थी . समय लगेगा, सुदृढ़ इच्छा शक्ति की आवश्यकता है परन्तु आस्तीन के साँप से युक्त विजय रथ पर कभी सवार ना हो .ना रथ बचेगा ,ना सवार . 

2016 में हुए असम विधानसभा चुनावो पर अगर हम नजर डाले तो कुछ दिलचस्प तथ्य सामने आते हैं जो कांग्रेस के लिए लाभकारी साबित हो सकते हैं और इस तथ्य को भी साबित करते हैं की हेमंत बिसवा शर्मा जैसे आस्तीन के साँप भी हमारी बढ़त नही रोक सकते,अगर हम संगठित हो कर चले और एक अच्छा चुनावी प्रबन्धन करे तो आंकड़े भी इसी बात की तरफ इशारा करते हैं की हम सत्ता में फिर से वापसी कर सकते हैं और भाजपा का विजय रथ रोक सकते हैं .
सन 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को असम में मिले थे कुल 55,07,152 वोट,जो कुल पड़े वोटो का 36.9 प्रतिशत था. वहीँ 2016 के विधानसभा चुनाव में भाजपा का मिले थे कुल 49,92,185 वोट जो कुल पड़े वोटो का 29.8 प्रतिशत थे , यानी की तकरीबन 5 लाख 15 हज़ार वोटो का नुकसान सन 2014 के लोकसभा चुनावो के बाद भाजपा को हुआ .

वहीँ कांग्रेस की बात करे तो लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को असम में मिले 44,67,295 वोट,जो की कुल पड़े वोटो का 29.9 प्रतिशत था और वहीँ 2016 के विधानसभा चुनाव में मिले 52,38,655 वोट,जो कुल पड़े वोटो का 31 प्रतिशत था यानी की 7 लाख 71 हज़ार से भी अधिक वोटो का लाभ कांग्रेस को हुआ सन 2014 के लोकसभा चुनावों के नुकसान के बाद .

भाजपा असम में अपने दम पर नही जीती है, जीत सिर्फ अन्य सहयोगी दलों के सहयोग से मिली है जिनका वोट प्रतिशत कुल पड़े वोट का 12 प्रतिशत रहा . जिसकी बदौलत भाजपा असम में सत्ता का सूरज देख पाई . अगर इसी प्रकार का गठबंधन कांग्रेस अगर All India United Democratic Front (AIUDF) के साथ (जिसका वोट प्रतिशत 13 प्रतिशत रहा) असम में कर लेती तो शायद आज असम राज्य में सत्ता में कांग्रेस होती , परन्तु AIUDF एक इस्लामिक दक्षिणपंथी राजनैतिक सन्गठन है , जिसकी समाजिक सम्बन्ध कट्टरपंथी और धार्मिक इलामिक संगठनो के साथ काफी गहरे हैं और विवादास्प्क भी हैं और ऐसे किसी भी दल के साथ किसी भी प्रकार राजनैतिक गठबंधन पार्टी की मूलभूत विचारधारा के खिलाफ होता और पार्टी की छवि पर नकरात्मक असर भी डालता है. हालाँकि पाला बदलने में महारत हासिल कर चुके नितीश कुमार इस तरह के “ध्रुवीकृत महा-गठबंधन” का सुझाव भी दे चुके थे. शायद एक अवसरवादी ही ऐसे अवसरवादी गठबंधन का सुझाव दे सकता है ,जिसके चलते राज्य का समाजिक ताना बाना बिगाड़ने में भाजपा को देरी नही लगती .

इन सभी तथ्यों का निचोड़ येही है की अगर संगठित हो कर चलें और “एकला चालो रे “ की नीति पर भी चला जाये तो असम में कांग्रेस फिर से सत्ता में स्थापित हो सकती है , पर राज्य में कांग्रेस के नेत्तृत्व को लेकर अब हमे गम्भीर होना होगा क्यूंकि तरुण गोगोई के बाद कांग्रेस का असम में नेतृत्व कौन करेगा ये एक सवाल जिसका जवाब हमे जल्द ही ढूंढना होगा .

बरहाल असम का चुनावी परिणाम कैसा भी रहा हो ,“आस्तीन का साँप “ अति घातक भी होता है, अति महत्वकांशी भी होता है और अति अवसरवादी भी ,अगर किसी पालतू कुत्ते के बिस्कुट खाने भर से दुखी हो कर ऐसे “आस्तीन का साँप” पार्टी छोड़ कर जा सकते हैं तो ऐसी अपरिपक्व राजनीती को सलाम जो आस्तीन के साँप को बाहर का रस्ता दिखा सके . मुबारक हो भाजपा तुम्हे ये आस्तीन के साँप , गलती से भी ऐसे अवसरवादियों पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों के जांच मत करवा देना क्यूंकि जो दाग कांग्रेस के दामन पर लगे थे वो कहीं मोदी जी के दामन पर स्थानांतरित ना हो जाये.

अंत में इस लेख के साथ जुड़ी ये फोटो भी देखिएगा जिसमे एक “आस्तीन का साँप ” एक पालतू कुत्ते का रूप धारण करके मोदी जी की बिस्कुट वाली प्लेट से बिस्कुट लेने की तैयारी में है, पर मोदी जी को कुत्ते के पिल्लों की मौत पर दुःख होता है ये भी याद रखियेगा .
आप से निवेदन रहेगा की कृपया इस दृश्य को हेमंत बिसवा शर्मा , बहुगुणा परिवार और नितीश कुमार के राजनैतिक चरित्र से जोड़ कर ना देखे . ये कहीं कोई इनके दुर्लभ राजनैतिक चरित्र के लिए राहुल गाँधी को दोषी ना करार दे दे .
और कहीं ऐसे सवाल पूछ कर आपका भी कहीं ”पप्पू“ की श्रेंणी में नामांकन ना हो जाये .
धन्यवाद ..

Tuesday, May 9, 2017

लेख - आपकी दक्षिणपंथी सामूहिक चेतना भी सबसे बड़ी बलात्कारी है ।


प्रिय पाठक , 
पिछले कुछ दिनों से "सामूहिक चेतना " नामक शब्द मीडिया में काफी उपयोग में लाया जा रहा है । तो सोचा की आज बात की जाएगी भारतीय सामूहिक चेतना के बारे जो भगवा रंग में डूब चुकी है या इस भारतीय सामूहिक चेतना को भी "मोदीयाबिंद" या "संघाईटीस" हो चुका है और आश्चर्य की बात ये है कि कुछ लोग इसे राष्ट्रवाद और हिंदुत्व का नाम देते हैं । दक्षिणपंथी गैंग के लोग सबसे ज़्यादा माहिर है आपकी "सामूहिक चेतना " जगाने और बुझाने में और आपको पता भी नही चलेगा की आपकी सामूहिक चेतना इन दाक्षिणपंथियों के शासन में कितनी "चयनात्मक" और "दोगली" हो चुकी है ।बिलकिस बानो और निर्भया केस में जिस तरीके से हमारी सामूहिक चेतना को जलाया और बुझाया गया वो हमारे चयनात्मक और दोगली सामूहिक चेतना का सबसे बड़ा उदहारण है  ।
ज़रा सोचिए की हमारे देश मे एक महिला के साथ आठ लोग उसके पति के सामने बलात्कार कर देते है और हमारी सामूहिक चेतना आहत ही नही होती ।क्या हमारी सामूहिक चेतना , जाती धर्म या किस राज्य में किस राजनैतिक दल का शासन है ये सारे तथ्यों को मद्देनजर रखने के बाद ही आहत होती है ? क्या हमारी सामूहिक चेतना इसलिए आहत नही हो रही कि अब यूपी में "यादव युग" की जगह "क्षत्रिय योगी" युग आ चुका है और सिर्फ दो ही महीने हुए हैं इस क्षत्रिय युग को आये हुए इसलिए जब तक पुराने युग के सामाजिक कुप्रभाव खत्म नही हो जाते (जिसकी कोई समय सीमा निर्धारित नही है) तब तक चुप रहे या फिर "तब कहाँ थे" वाला जुमला ठोक कर प्रश्न पूछने वाले को परास्त कर,उसे देश द्रोही घोषित कर सामूहिक चेतना के साथ ही बलात्कार कर दे ।
आपकी "सामूहिक चेतना" जातिगत और धार्मिक पृष्टभूमि के आधार पर ही भड़कती है और साथ ही साथ आपकी सामूहिक चेतना इस विषय का भी ध्यान रखती है की सत्ता में किस दल की सरकार है , अगर राष्ट्रवादी सरकार की है तो आपकी सामूहिक चेतना स्वयं का ही गला घोट देगी या फिर "जातिगत" आधार पर भड़केगी जैसे हरियाणा में भड़की थी औऱ उत्तरप्रदेश में "जातीगत" आधार पर अभी सुलग रही है ।
ज़रा सोचिये आपकी सामूहिक चेतना "कश्मीर" में हुए बलात्कारों पर कैसे भड़कती है और "उत्तरपूर्वी" राज्यों में हुए बलात्कारों को कैसे नज़रअंदाज़ करती है । ज़रा सोचिए आपकी सामूहिक चेतना देश मे दलित महिलाओं के साथ हुए तमाम बलात्कारों की घटनाओं को किस तरीके के से कुचल देती है अब चाहे वो फूलन देवी हो,चाहे वो भंवरी देवी हो और चाहे छत्तीसगढ़ में सुरक्षा बलों द्वारा आदिवासी महिलाओं के साथ हुए बलात्कार हो। आपकी सामूहिक चेतना इन सभी मामलों में बलात्कारियों के समर्थन में मौनव्रत धारण करके खड़ी होती है।
क्या बिलकिस बनो के संधर्भ में भी आपकी सामूहिक चेतना "गोधरा" कांड की आड़ लेकर ,इस सामूहिक बलात्कार को जायज़ ठहराती है , मतलब आपकी दक्षिणपंथी सामूहिक चेतना "धर्म" के आधार पर बलात्कारियों की चेतना भी बन जाती है ।कारगिल से लेकर गोधरा और हरियाणा से लेकर कश्मीर तक "खुफिया तंत्र" द्वारा उपलब्ध कराई गई खुफिया सूचनाओं को ये दक्षिणपंथी साम्राज्य अपने राजनैतिक स्वार्थ के लिए "नज़रअंदाज़" करता रहता है और हमारी सामूहिक चेतना भी इस "नज़रअंदाज़ कर देने वाले कृत्य" पर भी कोई सवाल नही खड़ा कर पाती है । एक दक्षिणपंथी और फासीवादी साम्राज्य किसी भी "समाजिक -राजनैतिक घटनाक्रम" का "नैतिक मापदंड और एजेंडा' स्वयं निर्धारित करता है और स्वयं को उस "समाजिक -राजनैतिक घटनाक्रम" के केंद्र बिंदु में रख कर अपनी राजनैतिक विचारधारा के लिए एक "प्रचुरोद्भवन वातावरण" का  निर्माण मीडिया और सोशल मीडिया के माध्यम से करवाता है।
ज़रा सोचिए आपकी तथाकथित "सामूहिक चेतना" पदमावती के काल्पनिक दृश्य " पर तो भड़क जाती है परंतु दूसरी तरफ "फूलन देवी" के हत्यारे को "हिन्दू हृदय" सम्राट भी घोषित कर देती है आपकी तथकथित सामूहिक चेतना , किस तरह बिहार में रणवीर सेना की "सामूहिक चेतना" को गौरवान्वित रूप ले लेती है जो जातिगत मानवधिकार हनन की सबसे बड़ी घटना मे से एक है । घोड़े पर दलित बैठता है, हाथी पर दलित बैठता है , फूल से सजी गाड़ी में दलित बैठता है तो नजाने उनका सामाजिक तौर पर बहिष्कार करने की "सामूहिक चेतना" कहाँ से जाग उठती है । ऐसी सामूहिक चेतना सिर्फ जाती और धर्म देखकर ही भड़कती है और वो भी "राष्ट्रवाद" का चोगा पहनकर।
खैर जम्मू के किसी पुलिस थाने में किसी महिला के साथ पुलिस वालों ने वो ही हरकत की है जो निर्भया केस में उस नाबालिक ने की थी ।देखते है सामूहिक चेतना कितनी भड़कती है क्योंकि कहा ये भी जा रहा है कि इस केस को को रफा दफा करने के लिए राज्य सरकार का एक वर्ग काफी दबाव बना रहा है ।
बड़ा ताज़्ज़ुब होता है कि राष्ट्रवादियों की सामूहिक चेतना अचानक से गायब हो जाती है जब कोई "भक्त" प्रधानमंत्री की विचारधारा की आड़ में बलात्कार की धमकी देता है और ट्रोल करता है , बड़ा ताज़्ज़ुब होता है कि हमारी सामूहिक चेतना उस समय भस्म हो जाती है जब प्रधानमंत्री के नाम से चल रहे राष्ट्रवादी संघटनो के मुखिया उत्तरपूर्व राज्य की महिलाओं से साथ संदिग्ध अवस्था मे पकड़े जाते है और बड़ा ताज़्ज़ुब होता है जब मुरथल हाईवे पर बड़े सामूहिक स्तर पर महिलाओं के साथ ब्लात्कार होते हैं और मीडिया के और समाज की सामूहिक चेतना कुछ दिनों बाद गायब दिखती है । कोई "इस्लामिक" एंगल नही है तो हो सकता है मुरथल सामूहिक रेप कांड में हमारी दक्षिणपंथी सामूहिक चेतना खड़ी नही हो पा रही हो । परन्तु ये मीडिया आधारित दक्षिणपंथी सामूहिक चेतना बैंगलोर में हुई सामूहिक छेड़छाड़ की घटनाओं पर बहुत उफान मारती है जो सीसीटीवी कैमरे की फुटेज के आधार पर झूठ और गलत साबित होती है ,काश बैंगलोर में राष्ट्रवादी सरकार होती तो तथ्यहीन खबरों को चलाने की ज़रूरत नही पड़ती ।क्या बैंगलोर वाली घटना क्या वास्तव में एक "बड़ी सामूहिक छेड़छाड़" की घटना थी । शायद नही क्यूंकि सोशल मीडिया में गुडगाँव में किसी "ऍम जी रोड " पर कुछ साल पहले हुई छेड़छाड़ की घटना के एक विडियो को बैंगलोर के किसी "ऍम जी रोड" की छेड़छाड़ की घटना के तौर पर सोशल मीडिया में दिखाया गया . सबूत
के लिए लिंक पेश है जिसमे दो अलग घटनाओ को जोड़कर एक घटना के तौर पर दिखाया गया है  - 
https://www.youtube.com/watch?v=J6U3QW28gNY&list=PLb3mSbzz6zktzoRJbRghpN4UkojtWc5mx

बरहाल दक्षिणपंथियों का अगला चुनावी पैंतरा "निर्भया" केस में उस नाबालिग के नाम और धर्म पर टिका है, ताकि ऐसे मुद्दों की आड़ में आने वाले राज्यों के चुनावों में सोशल मीडिया और मीडिया के माध्यम से साम्प्रदायिकता परोसी जा सके।परन्तु जो घिनोनी हरकत इस "निर्भया" के तथाकथित "नाबालिक" बलात्कारी ने की है जिसके "धर्म" के आधार पर हमारी सामूहिक चेतना फिर से खड़ी होगी ,ऐसी घिनोनी हरकत कुछ दिन पहले जम्मू पुलिस के अधिकारी ने किसी महिला के साथ थाने में भी की है ।। अब धर्म नही पूछोगे ।। अब जाती नही पूछोगे ।।

मणिपुर में एफस्पा का दुरुपयोग करने वाले सैनिकों का धर्म नही पूछोगे , जिन्होंने महिला के जननांग में बंदूक की गोलियाँ ठूस दी थी ,सामूहिक बलात्कार करने के बाद । पूछिये जाती और धर्म । शर्मा क्यों रहे है । आपकी दक्षिणपंथी सामूहिक चेतना का खोखलापन कहीं उफ़न कर बिखर ना जाये ।याद रखियेगा की मणिपुर से लेकर छत्तीसगढ़ तक और छत्तीसगढ़ से लेकर गुजरात तक और गुजरात से लेकर कश्मीर तक ऐसी कई सामूहिक दुष्कर्म और बलात्कार की घटनाएं है जिनके अपराधियों और आरोपियों के जाती और धर्म सुनकर आपकी दक्षिणपंथी सामूहिक चेतना लगभग चरमरा सी जाएगी। 
आशा करता हूँ इस लेख को पढ़ने के बाद आपकी सामूहिक चेतना जो 16 मई सन 2014 के बाद अर्नब गोस्वामी की तरह , रोहित सरदाना की तरह या फिर तिहाड़िया सुधीर की तरह बरताव नही करेगी और वो सामूहिक चेतना अब "दक्षिणपंथी" कुप्रभाव से बाहर ज़रूर आएगी ।
आपका प्यारा - देशद्रोही
चित्रेश गहलोत

Friday, December 23, 2016

ऑस्ट्रिया के राष्ट्रपति चुनाव और दक्षिणपंथियों का उदय

चार दिसम्बर को ऑस्ट्रिया में घोषित हुए राष्ट्रपति चुनाव के नतीजे वास्तव में चौकाने वाले थे और उतने ही चौकाने वाले रहे इन चुनावो से जुड़े घटनाक्रम जिसने इस बार यूरोप को राजनीति को हिला कर रख दिया है .
दरसल ऑस्ट्रिया में राष्ट्रपति चुनाव इस बार दो चरणों में हुए , पहले चरण में राष्ट्रपति दौड़ के लिए सभी योग्य उम्मीदवार चुनावी प्रतिस्पर्धा में उतरते है , ये चरण अक्सर बहु कोणीय मुकाबला होता है और राष्ट्रपति नियुक्त होने के लिए कुल पड़े मतों में से पचास प्रतिशत मत जिस उम्मीदवार के पक्ष में पड़ते है वो प्रत्याशी राष्ट्रपति पद के लिए निर्वाचित हो जाता हैं , परन्तु द्वितीय विश्व युद्ध के बाद ये पहली बार हुआ की कोई भी प्रत्याशी चुनावों में बहुमत पाने के लिए और राष्ट्रपति निर्वाचित होने के लिए अनिवार्य पचास प्रतिशत मत भी प्राप्त नही कर पाया, इसलिए अब राष्ट्रपति चुनाव अपने दुसरे चरण में प्रवेश कर चुका था .

24 अप्रैल को घोषित हुए राष्ट्रपति चुनाव के पहले चरण के चुनावी परिणाम कुछ इस प्रकार रहे -

1.नॉर्बर्ट होफर-(नेता- दक्षिणपंथी फ्रीडम पार्टी) - 35.1 प्रतिशत वोट 
2.अलेक्जांडर फान डेअ बेलेन-(स्वतंत्र उम्मीदवार/ग्रीन पार्टी के भूतपूर्व अध्यक्ष) - 21.3 प्रतिशत 
3.इरमगार्ड ग्रिस-(स्वतंत्र उम्मीदवार/सर्वोच न्यायलय के भूतपूर्व राष्ट्रपति) - 18.9 प्रतिशत 
4.रुडोल्फ हुन्डस्टोरफर-(नेता -सोशल डोमोक्रेटिक पार्टी ऑफ़ ऑस्ट्रिया-SPO) - 11.3 .प्रतिशत 
5. आन्द्रेअस खोल-(भूतपूर्व राष्ट्रपति- ऑस्ट्रियन पीपल पार्टी -OVP) 11.1 प्रतिशत 
6.रिचर्ड लुग्नर -(स्वतंत्र उम्मीदवार)2.3 प्रतिशत 

इन चुनावी परिणामों से ये साफ हो गया की ऑस्ट्रिया में दक्षिणपंथियों को जबर्दस्त बढ़त मिल रही थी ,  नॉर्बर्ट होफर जो दक्षिणपंथी फ्रीडम पार्टी के चुनावी उम्मीदवार थे इन चुनावों में अपने  चीर प्रतिद्वंदी , ग्रीन पार्टी के अलेक्जांडर फान डेअ बेलेन से 14 प्रतिशत के अंतर से आगे चल रहे थे , परन्तु फिर भी कोई भी नेता पचास प्रतिशत वोट हासिल करने में विफल रहा था . परन्तु चौकाने वाली बात ये भी रही की की SPO और OVP पार्टियों के कद्दावर उम्मीदवार भी दुसरे चरण में अपनी जगह नही बना सके . 

मुकाबला अब दुसरे चरण में प्रवेश कर चुका था अब सिर्फ दो ही उम्मीद्वार चुनावी अखाड़े में थे नॉर्बर्ट होफर और अलेक्जांडर फान डेअ बेलेन क्यूंकि दोनों ने प्रथम चरण में सर्वाधिक वोट प्राप्त किये थे इसलिए अब मुकाबला केवल दोनों प्रत्याशियों के बीच  ही होना था. 23 मई 2016 को घोषित हुए दुसरे दौर के चुनावी परिणामों में ग्रीन पार्ट्री के अलेक्जांडर फान डेअ बेलेन ने फ्रीडम पार्टी के प्रत्याशी नॉर्बर्ट होफर को तकरीबन तीस हजार आठ सो वोटों से परास्त किया . जीत का अंतर बेहद ही कम था ,फ्रीडम पार्टी के प्रत्याशी को मिले कुल 49.65 प्रतिशत वोट और ग्रीन पार्ट्री के के प्रत्याशी को मिले कुल 50.35 प्रतिशत वोट . 

परन्तु इस चुनावी कहानी में तब एक दिलचस्प मोड़तब आ गया जब ऑस्ट्रिया के सबसे बड़े समाचार पत्रिका क्रोनेंन जेईतुंग (Kronen Zeitung) ने  विभिन चुनावी शेत्रों में हुई चुनावी अनियमिताओं  और चुनावी  धांधलियों की खबर  छाप दी  और आठ जून तक फ्रीडम पार्टी ने इन चुनावी परिणामों को संवैधानिक कोर्ट में घसीटने की घोषणा कर दी . अब मामला कोर्ट में था और 1 जुलाई को ऑस्ट्रिया के संवैधानिक कोर्ट ने चुनाव में हुई अनियमिताओं और धांधलियों का संज्ञान लेते हुए दुसरे चरण  के चुनावी परिणामों को अमान्य करार दे दिया और दुसरे चरण के चुनाव फिर से कराने के आदेश दिए .

वैसे दुसरे चरण के चुनाव की सम्भावित तारीख 1 अक्टूबर थी परन्तु अभी चुनाव और आगे टलने थे और चुनाव टलने का कारण भी काफी हास्यास्पद और विवादास्प्क रहा. ऑस्ट्रिया में खराब गोंद ने आखिरकार राष्ट्रपति पद का चुनाव टलवा ही दिया . चुनाव के दौरान लोगो ने ये शिकायत की थी कि डाक से भेजे जाने वाले मतपत्रों के लिए जो लिफाफे आए हैं उनमें लगे गोंद से वे चिपकते ही नहीं। इससे उन्हें कोई भी खोल सकता है और उनके वोट की गोपनीयता भंग हो सकती है . 

आखिरकार दुसरे चरण की चुनावी तारीख 4 दिसम्बर तय हुई परन्तु चुनावी परिणाम एक दम उलट रहे और इस बार जीत ग्रीन पार्ट्री के अलेक्जांडर फान डेअ बेलेन की हुई जिन्होंने फ्रीडम पार्टी के प्रत्याशी नॉर्बर्ट होफर को तीन लाख अड़तालीस हज़ार वोटो से भी अधिक अंतर के वोटो से हराया. 

4 दिसम्बर को हुए चुनाव के परिणाम कुछ इस प्रकार रहे - 

1. अलेक्जांडर फान डेअ बेलेन - वोट मिले- 2,472,892   वोट प्रतिशत - 53.79% 
2. नॉर्बर्ट होफर- वोट मिले- 2,124,661 वोट प्रतिशत - 46.21%

इस पुरे चुनावी घटना क्रम से कुछ संकेत एक दम स्पष्ट आ रहे हैं - 

1.
दक्षिणपंथ की तरफ ऑस्ट्रियाई समाज का बढ़ता झुकाव - दुसरे चरण में पैंतालिस प्रतिशत से अधिक वोटरों ने दक्षिणपंथी फ्रीडम पार्टी के प्रत्याशी को अपना मत दिया , जिसका अर्थ येही निकाला जा सकता है की समाज में ध्रुवीकरण और इस्लामोफोबिया का प्रभाव बढ़ता जा रहा है और हाल ही में यूरोप में हुई आतंकवादी घटनाओं की कारण सरकार को उदारवाद आप्रवासन और आतंकवाद से जुड़ी नीतियों पर जनता से काफी मुश्किल प्रश्नों का सामना करना पड़ रहा है और विरोध भी झेलना पड़ रहा है. इसी ध्रुवीकरण के चलते पहले चरण में 68.5 प्रतिशत वोटिंग हुई , दुसरे चरण में 72.7 प्रतिशत वोटिंग हुई और "फिर से हुए दुसरे चरण" के चुनाव में 74.2 प्रतिशत वोटिंग हुई . वोटिंग दर में वृद्धि चुनावो के समय हो रहे समाजिक ध्रुवीकरण की तरफ इशारा करती हैं जो की दक्षिणपंथियों के लिए अक्सर फायदे का सौदा ही होता है , ऐसी परीस्थितयों में उनकी जीत की आशंका में काफी वृद्धि हो जाती है.  
ऑस्ट्रिया का समाज 2015 में अपने चरम पर पहुंचे सीरियन शरणार्थी संकट से अब भी जूझ रहा है, 2015 के खत्म होते होते 90000 शरणार्थियों के "शरण आवेदन" ऑस्ट्रिया प्राप्त कर चुका था और तकरीबन 8 लाख से ज्यादा शरणार्थी ऑस्ट्रिया के रस्ते यूरोप के दुसरे देशों की तरफ पलायन कर चुके थे. अप्रैल 2016 में ऑस्ट्रिया की सरकार ने सख्त नीति अपनाते हुए शरणार्थियों को अपनी देश की सीमा में स्वीकार करने की शमता 37500 तक सिमित कर दी. इतने बड़े स्तर पर सीरियाई शरणार्थियों के यूरोपियन पलायन से अर्थव्यवस्था पर आर्थिक दबाव तो बढ़ा ही है समाजिक और राजनैतिक ध्रूविकरण के माहौल भी प्रबलता से बनता हुआ दिखा है. 

दक्षिणपंथी "फ्रीडम पार्टी" के प्रत्याशी नॉर्बर्ट होफर ने अपने पुरे चुनावी कैंपेन में "सीरियन शरणार्थीयों" के विषय में सरकार द्वारा अपनाई जा रही उदार आप्रवासन नीतियों का जमकर विरोध किया, उन्होंने सिर्फ अपने ही देश के उदारवादी नेताओं के आड़े हाथो नही लिया , जर्मनी की चांसलर एंजेला मेर्केल की भी इस विषय पर अपनाई जा रही नीतियों की खुलकर आलोचना करी . नॉर्बर्ट होफर ने ऐसी उदारवादी आप्रवासन नीतियों और "सीरियन शरणार्थीयों" से जुड़ी सभी नीतियों को यूरोप में पनप रहे इस्लामिक आतंकवाद के लिए जिम्मेदार ठराया . हालाँकि नॉर्बर्ट होफर यूरोपियन यूनियन के पक्षधर हैं पर वो तुर्की के और तुर्क मुसलमानों के यूरोपियन यूनियन में शामिल होने के जमकर विरोध में हैं .वो अपने चुनावी कैंपेन में ये स्पष्ट कर चुके है की वो "शरिया कानून " और  "राजनैतिक इस्लाम " के देश और यूरोप की राजनैतिक व्यवस्था में हो रही दखलंदाजी और बढ़ रहे प्रभाव के सख्त खिलाफ हैं और ऐसे किसी भी विचारधारा से सख्ती से निपटने की वकालत करते हैं जो इस्लामिक आतंकवाद का पोषण करती हो . 

2.आर्थिक मोर्चे पर लोगो की सरकार से बढ़ती निराशा  - 
ऑस्ट्रिया से आए इन चुनावी नतीजों ने ये भी स्पष्ट संकेत दिए की लोगो में मौजूदा सरकार की आर्थिक नीतियों को लेकर काफी असंतोष है. कहने को ऑस्ट्रिया यूरोपियन यूनियन का चौथा धनी राष्ट्र है और यहाँ की अर्थव्यस्था की जीडीपी का 15 प्रतिशत हिस्सा पर्यटन से आता है. परन्तु ऑस्ट्रिया की अर्थव्यवस्था 2008 से पहले के उच्च विकास दर के आंकड़ो को फिर से नही छू पाई हैं. ऑस्ट्रिया में बेरोजगारी की दर पर भी अगर नजर डाली जाये तो पता चलता है की जहाँ बेरोजगारी की दर साल 2009 मध्य में 6.5 प्रतिशत से भी कम थी वही अब ये बेरोजगारी की दर साल 2016 में 9 से 10 प्रतिशत के बीच रही है. 

ऑस्ट्रिया के जाने माने थिंक टैंक "एजेंडा ऑस्ट्रिया" ने भी ऑस्ट्रिया की भविष्य में प्रतिस्पर्धा करने के क्षमता पर भी सवालिया निशान छोड़ा है ,जिनके अनुसार दस में से आठ यूरो प्रोजेक्ट या प्लांट के रखरखाव में खर्च हो रहे हैं और सिर्फ दो यूरो ही नये प्लांट या नये प्रोजेक्ट के निर्माण में खर्च हो रहे हैं . लोगो में ये मान्यता प्रबल होती जा रही है की मोजुदा सरकार की आर्थिक नीतियाँ एक स्थिर अर्थव्यवस्था की जगह एक मंद पड़ी अर्थव्यवस्था को जन्म दे रही है . 

आर्थिक मुद्दों पर नॉर्बर्ट होफर ट्रम्प मॉडल को अपनाते दिख रहे है जो की अर्थव्यवस्था को मंदी से निकालने के लिए टैक्स रेट में कटौती और आधारभूत ढांचे (इंफ्रास्ट्रक्चर ) के विकास और विस्तार को काफी महत्व देते आए हैं. परन्तु रोजगार के मुद्दे पर नॉर्बर्ट होफर यूरोपियन यूनियन से टकराव की स्थिति में दिख रहे हैं क्यूंकि यूरोपियन यूनियन में श्रमिकों की मुक्त आवाजाही का प्रवधान है और नॉर्बर्ट होफर विदेशी आव्रजन की वजह से घटे रोजगार के अवसरों को पहले ही एक चुनावी मुद्दा बना चुके हैं . उनकी आर्थिक नीति का एक उद्देश्य ऑस्ट्रियाई नागरिकों को रोजगार के अवसर मोहैया कराना भी है

रूस के साथ संबंधो पर नॉर्बर्ट होफर की लुक ईस्ट नीति रही है , ताकि ऑस्ट्रिया पर रूस द्वारा लगाये गये आर्थिक प्रतिबन्ध हटा सके और रूस के साथ नये आर्थिक संबंध स्थापित किये जा सके जो की ऑस्ट्रिया की आर्थिक विकास के लिए सहायक होंगे . इसी लुक ईस्ट नीति के चलते रूस और ऑस्ट्रिया की फ्रीडम पार्टी के बीच एक समझौता भी हुआ है जिसके तहत दोनों देशों के बीच बैठकों सभाओं और कार्यक्रमों के आयोजनों के माध्यम से आर्थिक और सामजिक रिश्तों को मजबूत करने की प्रतिबद्धता दर्शायी गयी है .


इन चुनावों में हार भले ही नॉर्बर्ट होफर जैसे घोर दक्षिणपंथी की हुई हो पर परन्तु इस हार की बदौलत फ्रीडम पार्टी ऑस्ट्रिया की राजनीति में अपनी जड़े भुत मजबूत बना चुकी है और ऑस्ट्रिया की जनता को अब एक वैकल्पिक राजनैतिक विचारधारा स्पष्ट तौर पर उभरती हुई दिख रही है, उदारवादियों या फिर सोशलिस्टो के लिये ये चुनावी दौर काफी उथल पुथल का रहा जीत का अंतर भी काफी कम रहा और जिस तरह अर्थव्यवस्था , आतंकवाद ,इस्लामोफोबिया और सिरीया से हो रहे शरणार्थियों के पलायन के मुद्दे पर ऑस्ट्रिया के समाज का ध्रुवीकरण हुआ है उससे ये साफ झलकता है की आने वाले चुनावो में उदारवादियों या फिर सोशलिस्टो का बहुमत में फिर से आना काफी मुश्किल साबित हो सकता हैं . निश्चित तौर पर ये एक ऐसी हार है जो दक्षिणपंथियों में तो भविष्य की जीत का जोश भर गयी है और उदारवादियों या फिर सोशलिस्टो के खेमे में भविष्य को लेकर अनिश्चितता और व्याकुलता बढ़ा गयी है . परन्तु एक बार के लिए ही सही नॉर्बर्ट होफर और फ्रीडम पार्टी की हार ने पुरे यूरोप में उदारवादियों राहत की साँस जरुरु दी है . 




 

References - 
1. http://www.thelocal.at/20161127/economic-woes-drive-austria-to-the-right
2. https://en.wikipedia.org/wiki/Austrian_presidential_election,_2016
3. http://www.samaylive.com/editorial/367868/right-of-the-storm.html
4. http://moderndiplomacy.eu/index.php?option=com_k2&view=item&id=2005:light-from-austria-in-european-darkness&Itemid=132
5. http://blogs.lse.ac.uk/europpblog/2016/12/14/austria-presidential-election-populism/

6. http://navbharattimes.indiatimes.com/opinion/editorial/two-mandate-one-message/articleshow/55815533.cms