Friday, December 23, 2016

ऑस्ट्रिया के राष्ट्रपति चुनाव और दक्षिणपंथियों का उदय

चार दिसम्बर को ऑस्ट्रिया में घोषित हुए राष्ट्रपति चुनाव के नतीजे वास्तव में चौकाने वाले थे और उतने ही चौकाने वाले रहे इन चुनावो से जुड़े घटनाक्रम जिसने इस बार यूरोप को राजनीति को हिला कर रख दिया है .
दरसल ऑस्ट्रिया में राष्ट्रपति चुनाव इस बार दो चरणों में हुए , पहले चरण में राष्ट्रपति दौड़ के लिए सभी योग्य उम्मीदवार चुनावी प्रतिस्पर्धा में उतरते है , ये चरण अक्सर बहु कोणीय मुकाबला होता है और राष्ट्रपति नियुक्त होने के लिए कुल पड़े मतों में से पचास प्रतिशत मत जिस उम्मीदवार के पक्ष में पड़ते है वो प्रत्याशी राष्ट्रपति पद के लिए निर्वाचित हो जाता हैं , परन्तु द्वितीय विश्व युद्ध के बाद ये पहली बार हुआ की कोई भी प्रत्याशी चुनावों में बहुमत पाने के लिए और राष्ट्रपति निर्वाचित होने के लिए अनिवार्य पचास प्रतिशत मत भी प्राप्त नही कर पाया, इसलिए अब राष्ट्रपति चुनाव अपने दुसरे चरण में प्रवेश कर चुका था .

24 अप्रैल को घोषित हुए राष्ट्रपति चुनाव के पहले चरण के चुनावी परिणाम कुछ इस प्रकार रहे -

1.नॉर्बर्ट होफर-(नेता- दक्षिणपंथी फ्रीडम पार्टी) - 35.1 प्रतिशत वोट 
2.अलेक्जांडर फान डेअ बेलेन-(स्वतंत्र उम्मीदवार/ग्रीन पार्टी के भूतपूर्व अध्यक्ष) - 21.3 प्रतिशत 
3.इरमगार्ड ग्रिस-(स्वतंत्र उम्मीदवार/सर्वोच न्यायलय के भूतपूर्व राष्ट्रपति) - 18.9 प्रतिशत 
4.रुडोल्फ हुन्डस्टोरफर-(नेता -सोशल डोमोक्रेटिक पार्टी ऑफ़ ऑस्ट्रिया-SPO) - 11.3 .प्रतिशत 
5. आन्द्रेअस खोल-(भूतपूर्व राष्ट्रपति- ऑस्ट्रियन पीपल पार्टी -OVP) 11.1 प्रतिशत 
6.रिचर्ड लुग्नर -(स्वतंत्र उम्मीदवार)2.3 प्रतिशत 

इन चुनावी परिणामों से ये साफ हो गया की ऑस्ट्रिया में दक्षिणपंथियों को जबर्दस्त बढ़त मिल रही थी ,  नॉर्बर्ट होफर जो दक्षिणपंथी फ्रीडम पार्टी के चुनावी उम्मीदवार थे इन चुनावों में अपने  चीर प्रतिद्वंदी , ग्रीन पार्टी के अलेक्जांडर फान डेअ बेलेन से 14 प्रतिशत के अंतर से आगे चल रहे थे , परन्तु फिर भी कोई भी नेता पचास प्रतिशत वोट हासिल करने में विफल रहा था . परन्तु चौकाने वाली बात ये भी रही की की SPO और OVP पार्टियों के कद्दावर उम्मीदवार भी दुसरे चरण में अपनी जगह नही बना सके . 

मुकाबला अब दुसरे चरण में प्रवेश कर चुका था अब सिर्फ दो ही उम्मीद्वार चुनावी अखाड़े में थे नॉर्बर्ट होफर और अलेक्जांडर फान डेअ बेलेन क्यूंकि दोनों ने प्रथम चरण में सर्वाधिक वोट प्राप्त किये थे इसलिए अब मुकाबला केवल दोनों प्रत्याशियों के बीच  ही होना था. 23 मई 2016 को घोषित हुए दुसरे दौर के चुनावी परिणामों में ग्रीन पार्ट्री के अलेक्जांडर फान डेअ बेलेन ने फ्रीडम पार्टी के प्रत्याशी नॉर्बर्ट होफर को तकरीबन तीस हजार आठ सो वोटों से परास्त किया . जीत का अंतर बेहद ही कम था ,फ्रीडम पार्टी के प्रत्याशी को मिले कुल 49.65 प्रतिशत वोट और ग्रीन पार्ट्री के के प्रत्याशी को मिले कुल 50.35 प्रतिशत वोट . 

परन्तु इस चुनावी कहानी में तब एक दिलचस्प मोड़तब आ गया जब ऑस्ट्रिया के सबसे बड़े समाचार पत्रिका क्रोनेंन जेईतुंग (Kronen Zeitung) ने  विभिन चुनावी शेत्रों में हुई चुनावी अनियमिताओं  और चुनावी  धांधलियों की खबर  छाप दी  और आठ जून तक फ्रीडम पार्टी ने इन चुनावी परिणामों को संवैधानिक कोर्ट में घसीटने की घोषणा कर दी . अब मामला कोर्ट में था और 1 जुलाई को ऑस्ट्रिया के संवैधानिक कोर्ट ने चुनाव में हुई अनियमिताओं और धांधलियों का संज्ञान लेते हुए दुसरे चरण  के चुनावी परिणामों को अमान्य करार दे दिया और दुसरे चरण के चुनाव फिर से कराने के आदेश दिए .

वैसे दुसरे चरण के चुनाव की सम्भावित तारीख 1 अक्टूबर थी परन्तु अभी चुनाव और आगे टलने थे और चुनाव टलने का कारण भी काफी हास्यास्पद और विवादास्प्क रहा. ऑस्ट्रिया में खराब गोंद ने आखिरकार राष्ट्रपति पद का चुनाव टलवा ही दिया . चुनाव के दौरान लोगो ने ये शिकायत की थी कि डाक से भेजे जाने वाले मतपत्रों के लिए जो लिफाफे आए हैं उनमें लगे गोंद से वे चिपकते ही नहीं। इससे उन्हें कोई भी खोल सकता है और उनके वोट की गोपनीयता भंग हो सकती है . 

आखिरकार दुसरे चरण की चुनावी तारीख 4 दिसम्बर तय हुई परन्तु चुनावी परिणाम एक दम उलट रहे और इस बार जीत ग्रीन पार्ट्री के अलेक्जांडर फान डेअ बेलेन की हुई जिन्होंने फ्रीडम पार्टी के प्रत्याशी नॉर्बर्ट होफर को तीन लाख अड़तालीस हज़ार वोटो से भी अधिक अंतर के वोटो से हराया. 

4 दिसम्बर को हुए चुनाव के परिणाम कुछ इस प्रकार रहे - 

1. अलेक्जांडर फान डेअ बेलेन - वोट मिले- 2,472,892   वोट प्रतिशत - 53.79% 
2. नॉर्बर्ट होफर- वोट मिले- 2,124,661 वोट प्रतिशत - 46.21%

इस पुरे चुनावी घटना क्रम से कुछ संकेत एक दम स्पष्ट आ रहे हैं - 

1.
दक्षिणपंथ की तरफ ऑस्ट्रियाई समाज का बढ़ता झुकाव - दुसरे चरण में पैंतालिस प्रतिशत से अधिक वोटरों ने दक्षिणपंथी फ्रीडम पार्टी के प्रत्याशी को अपना मत दिया , जिसका अर्थ येही निकाला जा सकता है की समाज में ध्रुवीकरण और इस्लामोफोबिया का प्रभाव बढ़ता जा रहा है और हाल ही में यूरोप में हुई आतंकवादी घटनाओं की कारण सरकार को उदारवाद आप्रवासन और आतंकवाद से जुड़ी नीतियों पर जनता से काफी मुश्किल प्रश्नों का सामना करना पड़ रहा है और विरोध भी झेलना पड़ रहा है. इसी ध्रुवीकरण के चलते पहले चरण में 68.5 प्रतिशत वोटिंग हुई , दुसरे चरण में 72.7 प्रतिशत वोटिंग हुई और "फिर से हुए दुसरे चरण" के चुनाव में 74.2 प्रतिशत वोटिंग हुई . वोटिंग दर में वृद्धि चुनावो के समय हो रहे समाजिक ध्रुवीकरण की तरफ इशारा करती हैं जो की दक्षिणपंथियों के लिए अक्सर फायदे का सौदा ही होता है , ऐसी परीस्थितयों में उनकी जीत की आशंका में काफी वृद्धि हो जाती है.  
ऑस्ट्रिया का समाज 2015 में अपने चरम पर पहुंचे सीरियन शरणार्थी संकट से अब भी जूझ रहा है, 2015 के खत्म होते होते 90000 शरणार्थियों के "शरण आवेदन" ऑस्ट्रिया प्राप्त कर चुका था और तकरीबन 8 लाख से ज्यादा शरणार्थी ऑस्ट्रिया के रस्ते यूरोप के दुसरे देशों की तरफ पलायन कर चुके थे. अप्रैल 2016 में ऑस्ट्रिया की सरकार ने सख्त नीति अपनाते हुए शरणार्थियों को अपनी देश की सीमा में स्वीकार करने की शमता 37500 तक सिमित कर दी. इतने बड़े स्तर पर सीरियाई शरणार्थियों के यूरोपियन पलायन से अर्थव्यवस्था पर आर्थिक दबाव तो बढ़ा ही है समाजिक और राजनैतिक ध्रूविकरण के माहौल भी प्रबलता से बनता हुआ दिखा है. 

दक्षिणपंथी "फ्रीडम पार्टी" के प्रत्याशी नॉर्बर्ट होफर ने अपने पुरे चुनावी कैंपेन में "सीरियन शरणार्थीयों" के विषय में सरकार द्वारा अपनाई जा रही उदार आप्रवासन नीतियों का जमकर विरोध किया, उन्होंने सिर्फ अपने ही देश के उदारवादी नेताओं के आड़े हाथो नही लिया , जर्मनी की चांसलर एंजेला मेर्केल की भी इस विषय पर अपनाई जा रही नीतियों की खुलकर आलोचना करी . नॉर्बर्ट होफर ने ऐसी उदारवादी आप्रवासन नीतियों और "सीरियन शरणार्थीयों" से जुड़ी सभी नीतियों को यूरोप में पनप रहे इस्लामिक आतंकवाद के लिए जिम्मेदार ठराया . हालाँकि नॉर्बर्ट होफर यूरोपियन यूनियन के पक्षधर हैं पर वो तुर्की के और तुर्क मुसलमानों के यूरोपियन यूनियन में शामिल होने के जमकर विरोध में हैं .वो अपने चुनावी कैंपेन में ये स्पष्ट कर चुके है की वो "शरिया कानून " और  "राजनैतिक इस्लाम " के देश और यूरोप की राजनैतिक व्यवस्था में हो रही दखलंदाजी और बढ़ रहे प्रभाव के सख्त खिलाफ हैं और ऐसे किसी भी विचारधारा से सख्ती से निपटने की वकालत करते हैं जो इस्लामिक आतंकवाद का पोषण करती हो . 

2.आर्थिक मोर्चे पर लोगो की सरकार से बढ़ती निराशा  - 
ऑस्ट्रिया से आए इन चुनावी नतीजों ने ये भी स्पष्ट संकेत दिए की लोगो में मौजूदा सरकार की आर्थिक नीतियों को लेकर काफी असंतोष है. कहने को ऑस्ट्रिया यूरोपियन यूनियन का चौथा धनी राष्ट्र है और यहाँ की अर्थव्यस्था की जीडीपी का 15 प्रतिशत हिस्सा पर्यटन से आता है. परन्तु ऑस्ट्रिया की अर्थव्यवस्था 2008 से पहले के उच्च विकास दर के आंकड़ो को फिर से नही छू पाई हैं. ऑस्ट्रिया में बेरोजगारी की दर पर भी अगर नजर डाली जाये तो पता चलता है की जहाँ बेरोजगारी की दर साल 2009 मध्य में 6.5 प्रतिशत से भी कम थी वही अब ये बेरोजगारी की दर साल 2016 में 9 से 10 प्रतिशत के बीच रही है. 

ऑस्ट्रिया के जाने माने थिंक टैंक "एजेंडा ऑस्ट्रिया" ने भी ऑस्ट्रिया की भविष्य में प्रतिस्पर्धा करने के क्षमता पर भी सवालिया निशान छोड़ा है ,जिनके अनुसार दस में से आठ यूरो प्रोजेक्ट या प्लांट के रखरखाव में खर्च हो रहे हैं और सिर्फ दो यूरो ही नये प्लांट या नये प्रोजेक्ट के निर्माण में खर्च हो रहे हैं . लोगो में ये मान्यता प्रबल होती जा रही है की मोजुदा सरकार की आर्थिक नीतियाँ एक स्थिर अर्थव्यवस्था की जगह एक मंद पड़ी अर्थव्यवस्था को जन्म दे रही है . 

आर्थिक मुद्दों पर नॉर्बर्ट होफर ट्रम्प मॉडल को अपनाते दिख रहे है जो की अर्थव्यवस्था को मंदी से निकालने के लिए टैक्स रेट में कटौती और आधारभूत ढांचे (इंफ्रास्ट्रक्चर ) के विकास और विस्तार को काफी महत्व देते आए हैं. परन्तु रोजगार के मुद्दे पर नॉर्बर्ट होफर यूरोपियन यूनियन से टकराव की स्थिति में दिख रहे हैं क्यूंकि यूरोपियन यूनियन में श्रमिकों की मुक्त आवाजाही का प्रवधान है और नॉर्बर्ट होफर विदेशी आव्रजन की वजह से घटे रोजगार के अवसरों को पहले ही एक चुनावी मुद्दा बना चुके हैं . उनकी आर्थिक नीति का एक उद्देश्य ऑस्ट्रियाई नागरिकों को रोजगार के अवसर मोहैया कराना भी है

रूस के साथ संबंधो पर नॉर्बर्ट होफर की लुक ईस्ट नीति रही है , ताकि ऑस्ट्रिया पर रूस द्वारा लगाये गये आर्थिक प्रतिबन्ध हटा सके और रूस के साथ नये आर्थिक संबंध स्थापित किये जा सके जो की ऑस्ट्रिया की आर्थिक विकास के लिए सहायक होंगे . इसी लुक ईस्ट नीति के चलते रूस और ऑस्ट्रिया की फ्रीडम पार्टी के बीच एक समझौता भी हुआ है जिसके तहत दोनों देशों के बीच बैठकों सभाओं और कार्यक्रमों के आयोजनों के माध्यम से आर्थिक और सामजिक रिश्तों को मजबूत करने की प्रतिबद्धता दर्शायी गयी है .


इन चुनावों में हार भले ही नॉर्बर्ट होफर जैसे घोर दक्षिणपंथी की हुई हो पर परन्तु इस हार की बदौलत फ्रीडम पार्टी ऑस्ट्रिया की राजनीति में अपनी जड़े भुत मजबूत बना चुकी है और ऑस्ट्रिया की जनता को अब एक वैकल्पिक राजनैतिक विचारधारा स्पष्ट तौर पर उभरती हुई दिख रही है, उदारवादियों या फिर सोशलिस्टो के लिये ये चुनावी दौर काफी उथल पुथल का रहा जीत का अंतर भी काफी कम रहा और जिस तरह अर्थव्यवस्था , आतंकवाद ,इस्लामोफोबिया और सिरीया से हो रहे शरणार्थियों के पलायन के मुद्दे पर ऑस्ट्रिया के समाज का ध्रुवीकरण हुआ है उससे ये साफ झलकता है की आने वाले चुनावो में उदारवादियों या फिर सोशलिस्टो का बहुमत में फिर से आना काफी मुश्किल साबित हो सकता हैं . निश्चित तौर पर ये एक ऐसी हार है जो दक्षिणपंथियों में तो भविष्य की जीत का जोश भर गयी है और उदारवादियों या फिर सोशलिस्टो के खेमे में भविष्य को लेकर अनिश्चितता और व्याकुलता बढ़ा गयी है . परन्तु एक बार के लिए ही सही नॉर्बर्ट होफर और फ्रीडम पार्टी की हार ने पुरे यूरोप में उदारवादियों राहत की साँस जरुरु दी है . 




 

References - 
1. http://www.thelocal.at/20161127/economic-woes-drive-austria-to-the-right
2. https://en.wikipedia.org/wiki/Austrian_presidential_election,_2016
3. http://www.samaylive.com/editorial/367868/right-of-the-storm.html
4. http://moderndiplomacy.eu/index.php?option=com_k2&view=item&id=2005:light-from-austria-in-european-darkness&Itemid=132
5. http://blogs.lse.ac.uk/europpblog/2016/12/14/austria-presidential-election-populism/

6. http://navbharattimes.indiatimes.com/opinion/editorial/two-mandate-one-message/articleshow/55815533.cms

Tuesday, December 13, 2016

सार्क ,ब्रिक्स और मोदी सरकार की भ्रमित विदेश नीति .

नमस्कार पाठकों ,
मेरा पाठकों से निवेदन है इस लेख को मोदी सरकार के विरूद्ध किसी "निंदा भरे " खुले पत्र के तौर पर ना ले और ना ही इस लेख को लिखने वाला कोई रक्षा या विदेश नीति मामलों का कोई पारंगत जानकार है जैसे की आज कल टीवी चैनलों पर पाए जाते हैं परन्तु इस लेख को लिखने वाला लेखक इस भारत देश का एक सजग , जागरूक परन्तु भयानक रूप से भ्रमित नागरिक है परन्तु  निश्चित तौर पर एक निवेंदन याद रखियेगा की लेखक किसी वामपंथी या दक्षिणपंथी विचारधारा के प्रभाव में ये लेख नही लिख रहा है क्यूंकि लेखक किसी लेफ्ट या राईट वाले राजनैतिक युद्ध का हिस्सा नही बनना चाहता .
 
बड़ी ही सरल और सपाट भाषा शैली में मैं ये बोलना चाहूँगा की मैं मोदी सरकार की विदेश नीति को लेकर स्वयं बहुत भ्रमित हूँ क्यूंकि भारतीय सेना द्वारा की गयी सर्जिकल स्ट्राइक्स का जो मोदी सरकार की विदेश नीति को जो राजनयिक लाभ मिलना चाहिए था वो राजनयिक लाभ अब विलुप्त हो चुका है. जो हमारे अतिराष्ट्रवादी मीडिया चैनल दावा कर रहे थे की पाकिस्तान पूरी तरीके से विश्वभर में आतंकवाद के मुद्दे पर राजनयिक रूप से अलग थलग पड़ चूका है ऐसा कुछ होता हुआ पिछले २० दिनों में देखने को नही मिला है .
 
क्यूंकि जब सोलह देश पाकिस्तान के साथ लाहोर में 18 अक्टूबर 2016 को 6 दिन के लिए संयुक्त सैनिक युधाभ्यास के लिए शामिल हों और जिसमे श्रीलंका का सैनिक दल भी शामिल हो तो निश्चित तौर पर मन में एक सवाल तो उठता ही है की जहाँ  श्रीलंका ने सार्क आयोजन का बहिष्कार करते हुए भारत का पक्ष तो लिया पर उसी श्रीलंका ने पाकिस्तान के साथ 18 अक्टूबर वाले संयुक्त युधाभ्यास से स्वयं को दूर क्यूँ नही रखा. ये ही सवाल बंगलादेश के विषय में भी उठता है की एक तरफ सार्क का बहिष्कार तो किया पर दूसरी तरफ पाकिस्तान में हो रहे 18 अक्टूबर वाले संयुक्त सैनिक युधाभ्यास में हिस्सा क्यूँ लिया .
 
सवाल ये भी उठता है की क्या सार्क का बहिष्कार भी पड़ोसी देशों के लिए एक औपचारिकता था , क्या सार्क के सदस्यों को भी ये लगने लगा है की सार्क का कोई राजनयिक या आर्थिक महत्व नही रह गया है . क्या मोदी सरकार सार्क को एक नया रूप और नीति देने का एक स्वर्णिम अवसर खो चुकी , क्यूंकि अगर सार्क के बहिष्कार की बजाय "पाकिस्तान मुक्त सार्क" का आयोजन अगर इस समय भारत में हो जाता जिसमे पाकिस्तान को छोड़ बाकि सभी देश सम्मिलित होते तो शायद ये भारत की दक्षिण पूर्वी एशिया को लेकर और आतंकवाद की नीति को लेकर एक दूरगामी राजनयिक विजय होती और लुक ईस्ट पालिसी को भी एक जबर्दस्त राजनयिक लाभ मिलता . सार्क को "पाक " भरोसे छोड़ कर हमने अपनी ही राजनयिक विरासत को लात मारने का काम किया है . क्यूंकि अब गेंद पाकिस्तान के पाले में हैं और अब पाकिस्तान "भारत रहित " सार्क जैसा संघठन चीन की सहायता के साथ खड़ा कर सकता है जो की BRICS को टक्कर देने कुवत शायद रख सकता हो .शायद मोदी सरकार "सार्क के बहिष्कार" और "पाकिस्तान के बहिष्कार" का अर्थ नही समझ पाई .
 
जितनी राजनैतिक क्षमता मोदी सरकार घरेलू राजनीती में NEDA ( North-East Democratic Alliance ) के माध्यम से "कांग्रेस मुक्त उत्तरपूर्व भारत" करने में लगा रही उतनी ही कूटनीतिक क्षमता और इच्छाशक्ति के साथ अगर सार्क को "पाक मुक्त सार्क " करने में लगाया होता तो अभी तक हम एक "पाक मुक्त सार्क " का आयोजन कर चुके होते और एक नयी राजनयिक सफलता का आगाज़ होता . पर मोदी सरकार पाकिस्तान के मूद्दे पर स्वयम के ही देश के बुद्धिजीवियों ,निन्न्द्कों और सवाल पूछने वालों को देशद्रोह और देशभक्ति का प्रमाण देने में अपनी राजनैतिक सफलता ज्यादा महसूस करती है .
 
अब बात करते हैं ब्रिक्स सम्मलेन , रूस और पाकिस्तान से जुड़ी कूटनीतिक विफलताओं की . रूस ने पाकिस्तान के साथ 24 सितम्बर से ले कर 10 अक्टूबर तक पहले संयुक्त युद्ध अभ्यास को अंजाम दिया , इससे संयुक्त युद्ध अभ्यास को भारत के प्रति रूस के बदलते दृष्टिकोण की तरह देखा जा रहा है , ये ही नहीं ,हॉल ही में गोवा में सम्प्न्न हुई ब्रिक्स समिट में भी रूस और चीन दोनों ने कहीं भी पाकिस्तान को एक आतंकवादी देश या "आतंकवादी की जननी" कहने से परहेज़ किया और तो और चीन ने एक कदम आगे आ कर भारतीय मीडिया के सामने खुले तौर पर पाकिस्तान को आतंकवाद से जोड़ने का पुरजोर विरोध किया . मोदी जी की विदेश नीति को सबसे बड़ा झटका तब लगा जब ब्रिक्स गोवा घोषणापत्र में संयुक्त राष्ट्र द्वारा "घोषित पाकिस्तानी आतंकवादी संघटनो" के नाम घोषणापत्र में शामिल नही हुए . परन्तु इससे भी बड़ी आश्चर्य की बात ये रही सीरिया और इराक में तबाही मचाने वाले आतंकवादी संगठन ISIS और झबात अल नुसरा जैसे आतंकवादी संघटनो का नाम ब्रिक्स गोवा घोषणापत्र में जगह बनाने में कामयाब रहे , निश्चित तौर पर ये सीरिया में चल रहे रूस के सैनिक अभियान के लिए एक बहुत बड़ी राजनयिक विजय थी क्यूंकि इस विषय पर चीन की भी "हाँ" थी और चीन की भी ये एक राजनयिक जीत थी क्यूंकि वो पाकिस्तान को ब्रिक्स जैसे अंतराष्ट्रीय मंच राजनयिक रूप से बचाने में कामयाब रहा . मोदी सरकार को कम से कम रूस को अपने विश्वास में ले कर ब्रिक्स में पाकिस्तान विरोधी कूटनीति करनी चाहिए थी आखिरकार रूस हमारा सबसे अधिक विश्वसनीय मित्र रहा है अगर हम रूस को ब्रिक्स में पाकिस्तान विरोधी खेमे में ले लेते तो शायद चीन की कुटनीतिक दिवार में भी हम सेंध लगा पाते . आखिर कूटनीतिक लक्ष्यों को हासिल करना ही किसी भी देश की विदेश नीति का मुख्य उद्देश्य होता है ना की राष्ट्रिय मीडिया की वाहा वाही लूटना .
 
कहीं न कहीं मोदी सरकार का पाकिस्तान केन्द्रित अभियान ब्रिक्स समिट में असफल रहा , हर समय पाकिस्तान आधारित एकतरफा बयानबाज़ी और भाषण के चलते ब्रिक्स गोवा में भारत आर्थिक एकीकरण जैसे मुख्य एजंडे से भटकता हुआ दिखा , इसका मतलब ये नही है की पाकिस्तान आधारित आतंकवाद की चर्चा हमे ऐसे मंचों पर नही करनी चाहिए परन्तु मोदी सरकार को ये समझना होगा की विदेश नीति सिर्फ टीवी स्टूडियो में बैठे राष्ट्रवादियों के चीखने चिल्लाने से निर्मित नही होती है , आप मीडिया मैनेजमेंट से सिर्फ चुनाव जीत सकते है , कूटनीतिक लक्ष्यों को हासिल करने के लिए अर्नब , रजत , सुधीर जैसे कलाकारों की आवश्यकता नही होती अपितु मनमोहन और वाजपेयी जैसे संजीदा और कूटनीतिक विशेषज्ञों के सुझाव और परामर्श की आवश्यकता पड़ती है जो शायद मोदी सरकार की सबसे बड़ी कुटनीतिक आवश्यकता है , अगर वो इस आवश्यकता को पहचाने तो .
नरेंद्र मोदी के अब तक सत्ता में आने के बाद चार बार अमेरिका की विदेश यात्रा पर जा चुके है और सिर्फ एक बार रूस की विदेश यात्रा पर गये हैं , सुषमा स्वराज भी एक बार रूस की विदेश यात्रा पर गयी हैं. हमे इस बात को ध्यान में रखना चाहिए की रूस के उप प्रधानमंत्री दमित्री रोगोजिन मोदी सरकार के गठन के बाद पांच बार भारत राजनयिक यात्रा पर आ चुके हैं .इतिहास गवाह है की संकट के समय सबसे ज्यादा सैनिक और राजनैयिक समर्थन सिर्फ एक ही देश का रहा है और वो है रूस. निश्चित तौर पर रूस भारत के साथ हो रहे 10 बिलियन डॉलर व्यापार के साथ संतुष्ट नहीं है और वो इस द्विपक्षीय व्यापार को सही मायनो में आगे बढ़ता देखना चाहता है अन्यथा रूस भी पाकिस्तान जैसे देशों के साथ भी आर्थिक और सैनिक समझोते करने को विवश हो सकता है .
 
 दिसम्बर 2014 में भारत रूस समिट में 100 बिलियन डॉलर के 20 समझोतों पर हस्ताक्षर हुए जो की एक एतिहासिक आंकड़ा है , येही नही साल भर बाद प्रधानमन्त्री श्री नरेंद्र  मोदी जी की रूस विदेश यात्रा में 16 समझोतों पर हस्ताक्षर हुए और अक्टूबर 2016 में गोवा में सम्प्पन हुई ब्रिक्स समिट में भी 16 समझोतों पर रूस और भारत के बीच हस्ताक्षर हुए . अब बड़ी बात ये होगी की क्या ये सब समझौते भारत और रूस के द्विपक्षीय व्यापार को 30 बिलियन डॉलर तक पहुंचा पाएंगे या फिर किताबी इतिहास बनकर रह जायेंगे .
 
रूस और भारत के बीच हुए रक्षा समझौते कहने को तो बहुत आकर्षक समझौते लगते हैं पर ब्रह्मोस मिसाइल के प्रोर्जेक्ट को छोड़ कर अधिकतर रक्षा समझोते में समय समय पर बजट की बढ़ोतरी , कलपुर्जों की कमी , निर्माण और वितरण में देरी एवं गुणवत्ता से जुड़े कई तकनिकी और आर्थिक समस्याओं का सामना भारत सरकार को करना पड़ता है जिसके चलते भारत को मजबूरन दुसरे देशों की तरफ रक्षा समझौतों के लिए रुखमोड़ना पड़ता है . अब भारत रूस की मित्रता एक ऐसे मोड़ पर पहुंच गयी है की जहाँ एक पुराना भरोसेमंद साथी साबित होने की बारी अब भारत की है , रूस की नही क्यूंकि रूस ने अन्य विकल्प खोजने शुरू कर दिए हैं .
 
अंत में दो मुख्य बिंदु हमारी विदेश नीति के लिए चिंता का विषय बन गये
१.रूस का गोवा में सम्पन्न हुए ब्रिक्स सम्मेलन में "पाकिस्तान विरोधी भारतीय खेमे" से नदारद होना
२, सार्क सम्मेलन का बहिष्कार करके , जाने अनजाने "पाक विरोधी " ना हो कर  "सार्क विरोधी " हो जाना और एक बड़े कूटनीतिक अवसर को अपनी ही खराब विदेश नीति से मार देना .
 
मोदी सरकार ये ध्यान रखे की कूटनीति और विदेश नीति चुनाव जीतने का पैमाना नहीं होती . ऐसी नीतियाँ दूरगामी राष्ट्रिय हितों को ध्यान में रखकर निर्मित की जाती है .
 
धन्यवाद ...

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कुछ अपरिचित सैनिकों की "गैर राष्ट्रवादी" कहानी

नमस्कार पाठकों ,
मेरी हिन्दी इतनी पर्रिप्क्व भी नही है की मैं किसी साहित्यकार के स्तर का कोई लेख लिख सकूँ परन्तु जिस विषय पर मैं अपने विचार प्रस्तुत करना चाहता हूँ वो विषय इतना “अनकहा ” है , वो विषय इतना “अनसुना” की  हिन्दी भाषा के उपयोग के बिना उस विषय से जुड़ी भावनाओ को प्रकट करना और उन भावनाओ को वैचारिक रूप देना कठिन सा लगता है .

इस लेख की शुरुआत एक घटना की चर्चा से करना चाहता था , उसके लिए मुझे काफी आत्ममंथन और विचार करना पड़ा और इसी दौरान मुझे मेरे छात्र जीवन से जुड़ी और “धुंधली पड़ चुकी ” अनुभूति का अनुभव हुआ और ये अनुभूति मेरे दसवी कक्षा के हिंदी विषय के गद्यांश से संबंधित थी और इसी गद्यांश ने कहीं ना कहीं आज तक मुझे मजबूर किया हमारी सेना को एक पेशेवर संघटन के तौर पर समझने में और मजबूर किया किसी सैनिक के मानवीय और समाजिक पहलू को समझने में.

गद्यांश का नाम  है "उसने कहा था" जो की एक सैनिक के प्रेम, शौर्य और बलिदान की अद्भुत प्रेम-कथा है और इस कहानी के कहानीकार हैं श्री चंद्रधर शर्मा गुलेरी जी  (1883-1922) हैं , जो की हिन्दी साहित्य के सबसे प्रसिद्ध कथाकार, व्यंगकार तथा निबन्धकार हैं . बीबीसी के एक सर्वेक्षण के मुताबिक ‘उसने कहा था’ न सिर्फ प्रेम-कथाओं बल्कि हिंदी की दस बेमिसाल कहानियों में भी शामिल है . ये कहानी एक सैनिक की और एक सैनिक की पत्नी की एक "मार्मिक और पवित्र प्रेम कहानी " है या फिर ये कह लीजिये की "एक परिस्थितिवश अधूरे परन्तु सशक्त प्रणय भाव" की कहानी है .

कहानी  77 सिख राइफ़ल्स के जमादार लहना सिंह  की है जो की एक "सूबेदारनी" को उसके पति और बेटे की रक्षा के लिए वचनब्ध होता है और एक पराये युद्ध में अपने कर्तव्यों की पालना करते हुए एक पराई युद्ध भूमि में एक पराये देश के लिए और एक पराये शत्रु से लड़ते हुए शहीद हो जाता है इसलिए कहानी मे कहीं भी राष्ट्रवाद का तड़का कहीं भी नही है .

कहानी का "हृदय" या "मूल भाव " तो उस बाल्यावस्था के "अल्प प्रणय काल" से जुड़ा है , जब अमृतसर में "कुड़माई" के सवाल पर "धत् " कहने वाली 8 साल की "रेशम के फूलोंवाला सालू" पहनने वाली  लड़की ,25 साल बाद एक "सूबेदारनी" के नाते अपने पुत्र और पति की रक्षा का लहना सिंह से  संकल्प लेती है . सूबेदारनी का सिर्फ उसे ही संकल्प देना और लहना सिंह का उस संकल्प का मरते दम तक पालन करना उस बाल्यावस्था के "अल्प प्रणय काल" के सशक्त प्रणय भाव को दर्शाता है. ऐसे सशक्त प्रणय भाव को एक "शादीशुदा" "सूबेदारनी" के नजरिये से और "लहना सिंह " के नजरिये से समझना आज भी बहुत मुश्किल है. शायद समाजिक नैतिकता के पर्दे हमे इन रिश्तों से जुड़ी जटिल भावनाओ को इस स्वछन्द आधुनिक युग में भी समझने में असमर्थ कर दे . कहानी की प्रष्टभूमि प्रथम विश्वयुद्ध से जुड़ी होने के कारण एक सैनिक के जीवन से जुड़ी सभी परिस्तिथियों, समस्याओं और पहलुओं का उल्लेख  बहुत ही सजीव और प्रगाढ़ हैं
प्रथम विश्व युद्ध की कठिन परिस्थितियों का चित्रण भी इस कहानी में इतना सजीव है की दुश्मन सिर्फ जर्मन सेना ही नही दिखती ,यूरोप के सर्द जाड़े वाला मौसम भी इस कहानी में मोर्चे पर तैनात सैनिकों के लिए किसी अदृश्य शत्रु से कम नही दीखता और इस अद्रश्य शत्रुओं का सामना उन्हें हर दिन अपने खंदकों में करना पड़ता था इसी अद्रश्य शत्रु जिसके चलते प्रथम विश्व युद्ध में लाखों सैनिकों ने अपनी जान गवाई थी . कहानी प्रथम विश्व युद्ध के माध्यम से उस समय के सम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद से पैदा हुई सामाजिक और सैन्य परिस्थितियों का परोक्ष और प्रत्यक्ष रूप से बहुत ही सटीक ,सजीव और प्रगाढ़ दर्शन करवाती हैं .

कहानी में एक सैनिक की पत्नी (सूबेदारनी) की पारिवारिक वेदना को भी दर्शाया गया है उस वेदना से जुड़ी भावनाए बहुत गहन और प्रचंड है क्यूंकि पुत्र और पति दोनों ही एक परायी धरती पर एक पराये शत्रु के साथ युद्ध के लिए जा रहे हैं और वो युद्ध था प्रथम विश्वयुद्ध .विश्वयुद्ध के काल में किसी परिवार में से एक से अधिक सदस्यों का सेना में होना और विश्वयुद्ध के विभिन मोर्चों पर तैनात होना एक आम बात थी . देश और दुनिया में आपको ऐसे कई परिवार मिलेंगे जिनके एक से अधिक सदस्य इन विश्व युद्धों में शहीद हुए हैं .

ये प्रेम कहानी काल्पनिक हो सकती है परन्तु उस समय के सैनिकों के जीवन से जुड़ी व्यवहारिक समस्याओं को बहुत ही सटीक वर्णन इस कहानी में हुआ है . ये कहानी एक ऐसा "गैर राष्ट्रवादी "उदाहरण और जो आज की अति राष्ट्रवादी युवा जमात को हमारे सेना और सैनिकों के प्रति दृष्टिकोण बदलने पर मजबूर कर सकती है , क्यूंकि अक्सर हम जब भी भारतीय सेना की बात करते है तब हम एक बहुत ही महत्वपुर्ण पहलू भूल जाते है और वो ऐतिहासिक पहलू है भारतीय सेना का प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध में सैनिक अभियानों में अमूल्य योगदान. दोनों विश्व युद्धों में हमारा योगदान एक "गैर राष्ट्रवादी" उधारण है . क्यूंकि युद्ध लड़े गये यूरोप , अफ्रीका और पूर्व एशिया में ना की पड़ोसि मुल्को से जो उस समय अस्तित्व में भी नहीं थे .

इस गैर राष्ट्रवादी उधारण की चर्चा करना इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाता है क्यूंकि युद्ध की पृष्ठभूमि से भारतीयि सैनिक एक दम अपरिचित थे . दोनों विश्वयुद्ध एक अपरिचित धरती पर एक अपरिचित शत्रु के साथ और अपरिचित परिस्तिथियों में लड़े गये भयानक युद्ध थे . दुःख की बात तो ये है की आज के इस प्रचंड राष्ट्रवाद के दौर में भारतीय सेना द्वारा प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्धों  में दिए गये बलिदान और योगदान को लगभग "अपरिचित" सा दर्जा दिया गया है . वैसे इस "अपरिचित" योगदान की स्मृति में एक “स्मारक” भी है , एक ऐसा “स्मारक” जिसके इतिहास को हम देख कर भी अनदेखा कर देते है इस स्मारक का नाम है "इंडिया गेट" जिसका निर्माण प्रथम विश्व युद्ध और अफ़ग़ान युद्धों में शहीद हुए भारतीय सैनिकों की स्मृति में किया गया और उद्घाटन 12 फरवरी , सन 1931 में किया गया .इसी स्मारक के मेहराब के नीचे एक अज्ञात सैनिक का मकबरा भी स्थापित है जिसके चारों कोनों पर सदैव अमर जवान ज्योति सदैव प्रज्वलित रहती है . ये स्मारक उस अविभाजित भारत देश की सैन्य ताकत का प्रतीक है जिसने ब्रिटिश उपनिवेशवाद के दौर में भी विश्व शांति नीव रखी और पुरे विश्व को फासीवादी ताकतों के ग्रहण से बचाया . देश और विदेशों में भी ऐसे अनेक समाधि स्थल और स्मृति स्मारक है जो भारतीय सेना के विश्वयुद्ध से जुड़े महत्वपूर्ण और शौर्यपूर्ण योगदान को दर्शाते है .

ये कहने में मुझे कोई भी संदेह नहीं की दोनों विश्व युद्धों में भारतीय सेना के अभूतपूर्व योगदान , शोर्य और बलिदान के कारण ही "मित्र राष्ट्रों " का गठ्बन्धन शत्रुओं की सेना को पराजित कर पाया और विश्व शांति स्थापित हो पाई अन्यथा विश्व राजनीती और विश्व मानचित्र पर फासीवादी और नाजीवादी ताकतों का बोल बाला होता और नस्लीय संघारों का दौर एक बहुत बड़ा समाजिक ,राजनैतिक ,आर्थिक और मानवीय संकट खड़ा कर देता . देश की आज़ादी के बाद भी सयुंक्त राष्ट्र के किसी भी शांति मिशन में भारतीय सेना का युद्ध ग्रस्त इलाकों में शांति स्थापित करने में अभूतपूर्व और निर्नायक योगदान रहा है .

हो सकता है मीडिया को इस "अपरिचित विषय " विषय में उस "राष्ट्रवादी तड़के" की महक ना आती हो जो की उन्हें अतिराष्ट्रवादी टीवी चैनलों के माध्यम से राष्ट्रवाद के नाम पर टीवी और सोशल मीडिया में गाली गलोच करने से मिलती है.  क्यूंकि हम सेना को एक राष्ट्रवादी संगठन के तौर पर देखने में सक्षम तो हैं , एक पेशेवर संगठन के तौर पर हमारी समाजिक समझ आज भी बहुत अपरिपक्व है . हम हमारे सैनिकों को एक "राष्ट्रवादी नायक" के तौर पर तो देख पाए हैं परन्तु उस "राष्ट्रवादी नायक" के पीछे छुपे एक मनुष्य को , एक परिस्थितियों से जूझते पेशेवर और एक आम इन्सान को कभी नहीं समझ पायें हैं . शायद इसीलिए लांस नायक हनुमनथप्पा हमारे लिए सिर्फ "हफ्ते भर के हीरो " बन कर रह गये थे , "हफ्ते भर के हीरो " भी इसलिए क्यूंकि उस समय में "जे.एन.यू  विवाद  "की तेज़ आँच पर पक रही राष्ट्रवादी दाल अपने "दक्षिणपंथी " तड़के के साथ महक रही थी , वरना "तीसरे" के बाद हमारा राष्ट्रवाद भी ऐसे ही ओझल होता है जैसे किसी तेज़ बारिश में आया "पृष्‍ठीय अपवाह' (Surface runoff) . इस देश भक्ति के "पृष्‍ठीय अपवाह' (Surface runoff) के सबसे बड़े  भुगत भोगी  वो  शहीद सैनिक की विधवा या फिर उस शहीद का परिवार होता है जिसे हम इस "पृष्‍ठीय अपवाह' के  बाद लगभग भूल सा  जाते  हैं. असल में देशभक्ति  के मायने तब होते हैं जब हम किसी शहीद सैनिक के परिवार और पत्नी का मनोवैज्ञानिक,सामाजिक  और आर्थिक पुनर्वास करने में सहयोग करते या फिर युद्ध में विकलांग हुए सैनिकों का मनोवैज्ञानिक,सामाजिक  और आर्थिक पुनर्वास करने में सहयोग करते हैं. दुर्भाग्य ये है की ऐसे मुद्दों को हमारे भारतीय समाज में कोई भी समाजिक समर्थन प्राप्त नही होता और नही दक्षिणपंथियों से ,न वामपंथियों से और न किसी और राजनैतिक विचारधारा से कोई भी राजनैतिक समर्थन इस मुद्दे पर प्राप्त नही होता और ना ही कोई सशक्त राय इस विषय पर कभी बन पाती है .   

दुर्भाग्य की बात का यह है की हम एक जवान एक सैनिक के जीवन को उनके जीवन से जुड़े संघर्षों को कभी एक मानवीय दृष्टिकोण नही दे पाये।उनकी जीवन शैली ,उनकी भावनात्मक उथल पुथल को कभी समझ ही नही पाये उनके आसपास के समाजिक जीवन को कभी भी समझ नही पाये .हमारे लिए सेना और सेना के जवान का चरित्र आज के इस युग में दो चहरों के तौर पर मीडिया द्वारा परोसा जाता है . पहला चेहरा देशभक्ति के नाम पर परोसा जाता है और दूसरा चेहरा मानव अधिकार का हनन करने वाले व्यक्ति के तौर पर परोसा जाता है. देशभक्ति और मानवाधिकार नामक दो गोलपोस्ट बना दिए जाते हैं और फिर देशभक्त दल और मानवाधिकार दल दोनों मिल कर सेना और सैनिक पर टीवी स्टूडियो में चीखने चिल्लाने वाला खेल खेलते हैं . क्यूंकि हमारी देश भक्ति  कश्मीर ,पाकिस्तान , मुसलमान जैसे "वैचारिक कोहरे " वाले विवादों से ही पनपती है ,शायद इसी वैचारिक कोहरे के बीच कहीं शब्द “सैनिक” कर्म “सैनिक” जीवन “सैनिक” खो जाता है और हम फिर से अनजाने में विफल हो जाते है “सैनिक” को समझने में .यूँ देखे तो अपने आप को बिना वर्दी के शत्रिय कहने वाले बहुत हैं इस देश में.
अगर शब्द सैनिक और सेना को समझना है तो भारतीय सेना के प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध के काल,परिस्तिथियों और शौर्यपूर्ण योगदान को समझे और पढ़े क्यूंकि उस दौर में भारत ब्रिटिश राज का एक उपनिवेश था और युद्ध के कारण भी "भारतीय राष्ट्रवाद" से जुड़े नही थे तब शायद हम सोशल मीडिया वाली देश भक्ति से ऊपर उठ कर हमारे सैनिको और सेना से जुड़े अनेक अनकहे मानवीय और समाजिक पहलुओं को समझ पाएंगे .
धन्यवाद।।
जय हिंद ।।

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