Tuesday, December 13, 2016

कुछ अपरिचित सैनिकों की "गैर राष्ट्रवादी" कहानी

नमस्कार पाठकों ,
मेरी हिन्दी इतनी पर्रिप्क्व भी नही है की मैं किसी साहित्यकार के स्तर का कोई लेख लिख सकूँ परन्तु जिस विषय पर मैं अपने विचार प्रस्तुत करना चाहता हूँ वो विषय इतना “अनकहा ” है , वो विषय इतना “अनसुना” की  हिन्दी भाषा के उपयोग के बिना उस विषय से जुड़ी भावनाओ को प्रकट करना और उन भावनाओ को वैचारिक रूप देना कठिन सा लगता है .

इस लेख की शुरुआत एक घटना की चर्चा से करना चाहता था , उसके लिए मुझे काफी आत्ममंथन और विचार करना पड़ा और इसी दौरान मुझे मेरे छात्र जीवन से जुड़ी और “धुंधली पड़ चुकी ” अनुभूति का अनुभव हुआ और ये अनुभूति मेरे दसवी कक्षा के हिंदी विषय के गद्यांश से संबंधित थी और इसी गद्यांश ने कहीं ना कहीं आज तक मुझे मजबूर किया हमारी सेना को एक पेशेवर संघटन के तौर पर समझने में और मजबूर किया किसी सैनिक के मानवीय और समाजिक पहलू को समझने में.

गद्यांश का नाम  है "उसने कहा था" जो की एक सैनिक के प्रेम, शौर्य और बलिदान की अद्भुत प्रेम-कथा है और इस कहानी के कहानीकार हैं श्री चंद्रधर शर्मा गुलेरी जी  (1883-1922) हैं , जो की हिन्दी साहित्य के सबसे प्रसिद्ध कथाकार, व्यंगकार तथा निबन्धकार हैं . बीबीसी के एक सर्वेक्षण के मुताबिक ‘उसने कहा था’ न सिर्फ प्रेम-कथाओं बल्कि हिंदी की दस बेमिसाल कहानियों में भी शामिल है . ये कहानी एक सैनिक की और एक सैनिक की पत्नी की एक "मार्मिक और पवित्र प्रेम कहानी " है या फिर ये कह लीजिये की "एक परिस्थितिवश अधूरे परन्तु सशक्त प्रणय भाव" की कहानी है .

कहानी  77 सिख राइफ़ल्स के जमादार लहना सिंह  की है जो की एक "सूबेदारनी" को उसके पति और बेटे की रक्षा के लिए वचनब्ध होता है और एक पराये युद्ध में अपने कर्तव्यों की पालना करते हुए एक पराई युद्ध भूमि में एक पराये देश के लिए और एक पराये शत्रु से लड़ते हुए शहीद हो जाता है इसलिए कहानी मे कहीं भी राष्ट्रवाद का तड़का कहीं भी नही है .

कहानी का "हृदय" या "मूल भाव " तो उस बाल्यावस्था के "अल्प प्रणय काल" से जुड़ा है , जब अमृतसर में "कुड़माई" के सवाल पर "धत् " कहने वाली 8 साल की "रेशम के फूलोंवाला सालू" पहनने वाली  लड़की ,25 साल बाद एक "सूबेदारनी" के नाते अपने पुत्र और पति की रक्षा का लहना सिंह से  संकल्प लेती है . सूबेदारनी का सिर्फ उसे ही संकल्प देना और लहना सिंह का उस संकल्प का मरते दम तक पालन करना उस बाल्यावस्था के "अल्प प्रणय काल" के सशक्त प्रणय भाव को दर्शाता है. ऐसे सशक्त प्रणय भाव को एक "शादीशुदा" "सूबेदारनी" के नजरिये से और "लहना सिंह " के नजरिये से समझना आज भी बहुत मुश्किल है. शायद समाजिक नैतिकता के पर्दे हमे इन रिश्तों से जुड़ी जटिल भावनाओ को इस स्वछन्द आधुनिक युग में भी समझने में असमर्थ कर दे . कहानी की प्रष्टभूमि प्रथम विश्वयुद्ध से जुड़ी होने के कारण एक सैनिक के जीवन से जुड़ी सभी परिस्तिथियों, समस्याओं और पहलुओं का उल्लेख  बहुत ही सजीव और प्रगाढ़ हैं
प्रथम विश्व युद्ध की कठिन परिस्थितियों का चित्रण भी इस कहानी में इतना सजीव है की दुश्मन सिर्फ जर्मन सेना ही नही दिखती ,यूरोप के सर्द जाड़े वाला मौसम भी इस कहानी में मोर्चे पर तैनात सैनिकों के लिए किसी अदृश्य शत्रु से कम नही दीखता और इस अद्रश्य शत्रुओं का सामना उन्हें हर दिन अपने खंदकों में करना पड़ता था इसी अद्रश्य शत्रु जिसके चलते प्रथम विश्व युद्ध में लाखों सैनिकों ने अपनी जान गवाई थी . कहानी प्रथम विश्व युद्ध के माध्यम से उस समय के सम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद से पैदा हुई सामाजिक और सैन्य परिस्थितियों का परोक्ष और प्रत्यक्ष रूप से बहुत ही सटीक ,सजीव और प्रगाढ़ दर्शन करवाती हैं .

कहानी में एक सैनिक की पत्नी (सूबेदारनी) की पारिवारिक वेदना को भी दर्शाया गया है उस वेदना से जुड़ी भावनाए बहुत गहन और प्रचंड है क्यूंकि पुत्र और पति दोनों ही एक परायी धरती पर एक पराये शत्रु के साथ युद्ध के लिए जा रहे हैं और वो युद्ध था प्रथम विश्वयुद्ध .विश्वयुद्ध के काल में किसी परिवार में से एक से अधिक सदस्यों का सेना में होना और विश्वयुद्ध के विभिन मोर्चों पर तैनात होना एक आम बात थी . देश और दुनिया में आपको ऐसे कई परिवार मिलेंगे जिनके एक से अधिक सदस्य इन विश्व युद्धों में शहीद हुए हैं .

ये प्रेम कहानी काल्पनिक हो सकती है परन्तु उस समय के सैनिकों के जीवन से जुड़ी व्यवहारिक समस्याओं को बहुत ही सटीक वर्णन इस कहानी में हुआ है . ये कहानी एक ऐसा "गैर राष्ट्रवादी "उदाहरण और जो आज की अति राष्ट्रवादी युवा जमात को हमारे सेना और सैनिकों के प्रति दृष्टिकोण बदलने पर मजबूर कर सकती है , क्यूंकि अक्सर हम जब भी भारतीय सेना की बात करते है तब हम एक बहुत ही महत्वपुर्ण पहलू भूल जाते है और वो ऐतिहासिक पहलू है भारतीय सेना का प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध में सैनिक अभियानों में अमूल्य योगदान. दोनों विश्व युद्धों में हमारा योगदान एक "गैर राष्ट्रवादी" उधारण है . क्यूंकि युद्ध लड़े गये यूरोप , अफ्रीका और पूर्व एशिया में ना की पड़ोसि मुल्को से जो उस समय अस्तित्व में भी नहीं थे .

इस गैर राष्ट्रवादी उधारण की चर्चा करना इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाता है क्यूंकि युद्ध की पृष्ठभूमि से भारतीयि सैनिक एक दम अपरिचित थे . दोनों विश्वयुद्ध एक अपरिचित धरती पर एक अपरिचित शत्रु के साथ और अपरिचित परिस्तिथियों में लड़े गये भयानक युद्ध थे . दुःख की बात तो ये है की आज के इस प्रचंड राष्ट्रवाद के दौर में भारतीय सेना द्वारा प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्धों  में दिए गये बलिदान और योगदान को लगभग "अपरिचित" सा दर्जा दिया गया है . वैसे इस "अपरिचित" योगदान की स्मृति में एक “स्मारक” भी है , एक ऐसा “स्मारक” जिसके इतिहास को हम देख कर भी अनदेखा कर देते है इस स्मारक का नाम है "इंडिया गेट" जिसका निर्माण प्रथम विश्व युद्ध और अफ़ग़ान युद्धों में शहीद हुए भारतीय सैनिकों की स्मृति में किया गया और उद्घाटन 12 फरवरी , सन 1931 में किया गया .इसी स्मारक के मेहराब के नीचे एक अज्ञात सैनिक का मकबरा भी स्थापित है जिसके चारों कोनों पर सदैव अमर जवान ज्योति सदैव प्रज्वलित रहती है . ये स्मारक उस अविभाजित भारत देश की सैन्य ताकत का प्रतीक है जिसने ब्रिटिश उपनिवेशवाद के दौर में भी विश्व शांति नीव रखी और पुरे विश्व को फासीवादी ताकतों के ग्रहण से बचाया . देश और विदेशों में भी ऐसे अनेक समाधि स्थल और स्मृति स्मारक है जो भारतीय सेना के विश्वयुद्ध से जुड़े महत्वपूर्ण और शौर्यपूर्ण योगदान को दर्शाते है .

ये कहने में मुझे कोई भी संदेह नहीं की दोनों विश्व युद्धों में भारतीय सेना के अभूतपूर्व योगदान , शोर्य और बलिदान के कारण ही "मित्र राष्ट्रों " का गठ्बन्धन शत्रुओं की सेना को पराजित कर पाया और विश्व शांति स्थापित हो पाई अन्यथा विश्व राजनीती और विश्व मानचित्र पर फासीवादी और नाजीवादी ताकतों का बोल बाला होता और नस्लीय संघारों का दौर एक बहुत बड़ा समाजिक ,राजनैतिक ,आर्थिक और मानवीय संकट खड़ा कर देता . देश की आज़ादी के बाद भी सयुंक्त राष्ट्र के किसी भी शांति मिशन में भारतीय सेना का युद्ध ग्रस्त इलाकों में शांति स्थापित करने में अभूतपूर्व और निर्नायक योगदान रहा है .

हो सकता है मीडिया को इस "अपरिचित विषय " विषय में उस "राष्ट्रवादी तड़के" की महक ना आती हो जो की उन्हें अतिराष्ट्रवादी टीवी चैनलों के माध्यम से राष्ट्रवाद के नाम पर टीवी और सोशल मीडिया में गाली गलोच करने से मिलती है.  क्यूंकि हम सेना को एक राष्ट्रवादी संगठन के तौर पर देखने में सक्षम तो हैं , एक पेशेवर संगठन के तौर पर हमारी समाजिक समझ आज भी बहुत अपरिपक्व है . हम हमारे सैनिकों को एक "राष्ट्रवादी नायक" के तौर पर तो देख पाए हैं परन्तु उस "राष्ट्रवादी नायक" के पीछे छुपे एक मनुष्य को , एक परिस्थितियों से जूझते पेशेवर और एक आम इन्सान को कभी नहीं समझ पायें हैं . शायद इसीलिए लांस नायक हनुमनथप्पा हमारे लिए सिर्फ "हफ्ते भर के हीरो " बन कर रह गये थे , "हफ्ते भर के हीरो " भी इसलिए क्यूंकि उस समय में "जे.एन.यू  विवाद  "की तेज़ आँच पर पक रही राष्ट्रवादी दाल अपने "दक्षिणपंथी " तड़के के साथ महक रही थी , वरना "तीसरे" के बाद हमारा राष्ट्रवाद भी ऐसे ही ओझल होता है जैसे किसी तेज़ बारिश में आया "पृष्‍ठीय अपवाह' (Surface runoff) . इस देश भक्ति के "पृष्‍ठीय अपवाह' (Surface runoff) के सबसे बड़े  भुगत भोगी  वो  शहीद सैनिक की विधवा या फिर उस शहीद का परिवार होता है जिसे हम इस "पृष्‍ठीय अपवाह' के  बाद लगभग भूल सा  जाते  हैं. असल में देशभक्ति  के मायने तब होते हैं जब हम किसी शहीद सैनिक के परिवार और पत्नी का मनोवैज्ञानिक,सामाजिक  और आर्थिक पुनर्वास करने में सहयोग करते या फिर युद्ध में विकलांग हुए सैनिकों का मनोवैज्ञानिक,सामाजिक  और आर्थिक पुनर्वास करने में सहयोग करते हैं. दुर्भाग्य ये है की ऐसे मुद्दों को हमारे भारतीय समाज में कोई भी समाजिक समर्थन प्राप्त नही होता और नही दक्षिणपंथियों से ,न वामपंथियों से और न किसी और राजनैतिक विचारधारा से कोई भी राजनैतिक समर्थन इस मुद्दे पर प्राप्त नही होता और ना ही कोई सशक्त राय इस विषय पर कभी बन पाती है .   

दुर्भाग्य की बात का यह है की हम एक जवान एक सैनिक के जीवन को उनके जीवन से जुड़े संघर्षों को कभी एक मानवीय दृष्टिकोण नही दे पाये।उनकी जीवन शैली ,उनकी भावनात्मक उथल पुथल को कभी समझ ही नही पाये उनके आसपास के समाजिक जीवन को कभी भी समझ नही पाये .हमारे लिए सेना और सेना के जवान का चरित्र आज के इस युग में दो चहरों के तौर पर मीडिया द्वारा परोसा जाता है . पहला चेहरा देशभक्ति के नाम पर परोसा जाता है और दूसरा चेहरा मानव अधिकार का हनन करने वाले व्यक्ति के तौर पर परोसा जाता है. देशभक्ति और मानवाधिकार नामक दो गोलपोस्ट बना दिए जाते हैं और फिर देशभक्त दल और मानवाधिकार दल दोनों मिल कर सेना और सैनिक पर टीवी स्टूडियो में चीखने चिल्लाने वाला खेल खेलते हैं . क्यूंकि हमारी देश भक्ति  कश्मीर ,पाकिस्तान , मुसलमान जैसे "वैचारिक कोहरे " वाले विवादों से ही पनपती है ,शायद इसी वैचारिक कोहरे के बीच कहीं शब्द “सैनिक” कर्म “सैनिक” जीवन “सैनिक” खो जाता है और हम फिर से अनजाने में विफल हो जाते है “सैनिक” को समझने में .यूँ देखे तो अपने आप को बिना वर्दी के शत्रिय कहने वाले बहुत हैं इस देश में.
अगर शब्द सैनिक और सेना को समझना है तो भारतीय सेना के प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध के काल,परिस्तिथियों और शौर्यपूर्ण योगदान को समझे और पढ़े क्यूंकि उस दौर में भारत ब्रिटिश राज का एक उपनिवेश था और युद्ध के कारण भी "भारतीय राष्ट्रवाद" से जुड़े नही थे तब शायद हम सोशल मीडिया वाली देश भक्ति से ऊपर उठ कर हमारे सैनिको और सेना से जुड़े अनेक अनकहे मानवीय और समाजिक पहलुओं को समझ पाएंगे .
धन्यवाद।।
जय हिंद ।।

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