Tuesday, December 13, 2016

सार्क ,ब्रिक्स और मोदी सरकार की भ्रमित विदेश नीति .

नमस्कार पाठकों ,
मेरा पाठकों से निवेदन है इस लेख को मोदी सरकार के विरूद्ध किसी "निंदा भरे " खुले पत्र के तौर पर ना ले और ना ही इस लेख को लिखने वाला कोई रक्षा या विदेश नीति मामलों का कोई पारंगत जानकार है जैसे की आज कल टीवी चैनलों पर पाए जाते हैं परन्तु इस लेख को लिखने वाला लेखक इस भारत देश का एक सजग , जागरूक परन्तु भयानक रूप से भ्रमित नागरिक है परन्तु  निश्चित तौर पर एक निवेंदन याद रखियेगा की लेखक किसी वामपंथी या दक्षिणपंथी विचारधारा के प्रभाव में ये लेख नही लिख रहा है क्यूंकि लेखक किसी लेफ्ट या राईट वाले राजनैतिक युद्ध का हिस्सा नही बनना चाहता .
 
बड़ी ही सरल और सपाट भाषा शैली में मैं ये बोलना चाहूँगा की मैं मोदी सरकार की विदेश नीति को लेकर स्वयं बहुत भ्रमित हूँ क्यूंकि भारतीय सेना द्वारा की गयी सर्जिकल स्ट्राइक्स का जो मोदी सरकार की विदेश नीति को जो राजनयिक लाभ मिलना चाहिए था वो राजनयिक लाभ अब विलुप्त हो चुका है. जो हमारे अतिराष्ट्रवादी मीडिया चैनल दावा कर रहे थे की पाकिस्तान पूरी तरीके से विश्वभर में आतंकवाद के मुद्दे पर राजनयिक रूप से अलग थलग पड़ चूका है ऐसा कुछ होता हुआ पिछले २० दिनों में देखने को नही मिला है .
 
क्यूंकि जब सोलह देश पाकिस्तान के साथ लाहोर में 18 अक्टूबर 2016 को 6 दिन के लिए संयुक्त सैनिक युधाभ्यास के लिए शामिल हों और जिसमे श्रीलंका का सैनिक दल भी शामिल हो तो निश्चित तौर पर मन में एक सवाल तो उठता ही है की जहाँ  श्रीलंका ने सार्क आयोजन का बहिष्कार करते हुए भारत का पक्ष तो लिया पर उसी श्रीलंका ने पाकिस्तान के साथ 18 अक्टूबर वाले संयुक्त युधाभ्यास से स्वयं को दूर क्यूँ नही रखा. ये ही सवाल बंगलादेश के विषय में भी उठता है की एक तरफ सार्क का बहिष्कार तो किया पर दूसरी तरफ पाकिस्तान में हो रहे 18 अक्टूबर वाले संयुक्त सैनिक युधाभ्यास में हिस्सा क्यूँ लिया .
 
सवाल ये भी उठता है की क्या सार्क का बहिष्कार भी पड़ोसी देशों के लिए एक औपचारिकता था , क्या सार्क के सदस्यों को भी ये लगने लगा है की सार्क का कोई राजनयिक या आर्थिक महत्व नही रह गया है . क्या मोदी सरकार सार्क को एक नया रूप और नीति देने का एक स्वर्णिम अवसर खो चुकी , क्यूंकि अगर सार्क के बहिष्कार की बजाय "पाकिस्तान मुक्त सार्क" का आयोजन अगर इस समय भारत में हो जाता जिसमे पाकिस्तान को छोड़ बाकि सभी देश सम्मिलित होते तो शायद ये भारत की दक्षिण पूर्वी एशिया को लेकर और आतंकवाद की नीति को लेकर एक दूरगामी राजनयिक विजय होती और लुक ईस्ट पालिसी को भी एक जबर्दस्त राजनयिक लाभ मिलता . सार्क को "पाक " भरोसे छोड़ कर हमने अपनी ही राजनयिक विरासत को लात मारने का काम किया है . क्यूंकि अब गेंद पाकिस्तान के पाले में हैं और अब पाकिस्तान "भारत रहित " सार्क जैसा संघठन चीन की सहायता के साथ खड़ा कर सकता है जो की BRICS को टक्कर देने कुवत शायद रख सकता हो .शायद मोदी सरकार "सार्क के बहिष्कार" और "पाकिस्तान के बहिष्कार" का अर्थ नही समझ पाई .
 
जितनी राजनैतिक क्षमता मोदी सरकार घरेलू राजनीती में NEDA ( North-East Democratic Alliance ) के माध्यम से "कांग्रेस मुक्त उत्तरपूर्व भारत" करने में लगा रही उतनी ही कूटनीतिक क्षमता और इच्छाशक्ति के साथ अगर सार्क को "पाक मुक्त सार्क " करने में लगाया होता तो अभी तक हम एक "पाक मुक्त सार्क " का आयोजन कर चुके होते और एक नयी राजनयिक सफलता का आगाज़ होता . पर मोदी सरकार पाकिस्तान के मूद्दे पर स्वयम के ही देश के बुद्धिजीवियों ,निन्न्द्कों और सवाल पूछने वालों को देशद्रोह और देशभक्ति का प्रमाण देने में अपनी राजनैतिक सफलता ज्यादा महसूस करती है .
 
अब बात करते हैं ब्रिक्स सम्मलेन , रूस और पाकिस्तान से जुड़ी कूटनीतिक विफलताओं की . रूस ने पाकिस्तान के साथ 24 सितम्बर से ले कर 10 अक्टूबर तक पहले संयुक्त युद्ध अभ्यास को अंजाम दिया , इससे संयुक्त युद्ध अभ्यास को भारत के प्रति रूस के बदलते दृष्टिकोण की तरह देखा जा रहा है , ये ही नहीं ,हॉल ही में गोवा में सम्प्न्न हुई ब्रिक्स समिट में भी रूस और चीन दोनों ने कहीं भी पाकिस्तान को एक आतंकवादी देश या "आतंकवादी की जननी" कहने से परहेज़ किया और तो और चीन ने एक कदम आगे आ कर भारतीय मीडिया के सामने खुले तौर पर पाकिस्तान को आतंकवाद से जोड़ने का पुरजोर विरोध किया . मोदी जी की विदेश नीति को सबसे बड़ा झटका तब लगा जब ब्रिक्स गोवा घोषणापत्र में संयुक्त राष्ट्र द्वारा "घोषित पाकिस्तानी आतंकवादी संघटनो" के नाम घोषणापत्र में शामिल नही हुए . परन्तु इससे भी बड़ी आश्चर्य की बात ये रही सीरिया और इराक में तबाही मचाने वाले आतंकवादी संगठन ISIS और झबात अल नुसरा जैसे आतंकवादी संघटनो का नाम ब्रिक्स गोवा घोषणापत्र में जगह बनाने में कामयाब रहे , निश्चित तौर पर ये सीरिया में चल रहे रूस के सैनिक अभियान के लिए एक बहुत बड़ी राजनयिक विजय थी क्यूंकि इस विषय पर चीन की भी "हाँ" थी और चीन की भी ये एक राजनयिक जीत थी क्यूंकि वो पाकिस्तान को ब्रिक्स जैसे अंतराष्ट्रीय मंच राजनयिक रूप से बचाने में कामयाब रहा . मोदी सरकार को कम से कम रूस को अपने विश्वास में ले कर ब्रिक्स में पाकिस्तान विरोधी कूटनीति करनी चाहिए थी आखिरकार रूस हमारा सबसे अधिक विश्वसनीय मित्र रहा है अगर हम रूस को ब्रिक्स में पाकिस्तान विरोधी खेमे में ले लेते तो शायद चीन की कुटनीतिक दिवार में भी हम सेंध लगा पाते . आखिर कूटनीतिक लक्ष्यों को हासिल करना ही किसी भी देश की विदेश नीति का मुख्य उद्देश्य होता है ना की राष्ट्रिय मीडिया की वाहा वाही लूटना .
 
कहीं न कहीं मोदी सरकार का पाकिस्तान केन्द्रित अभियान ब्रिक्स समिट में असफल रहा , हर समय पाकिस्तान आधारित एकतरफा बयानबाज़ी और भाषण के चलते ब्रिक्स गोवा में भारत आर्थिक एकीकरण जैसे मुख्य एजंडे से भटकता हुआ दिखा , इसका मतलब ये नही है की पाकिस्तान आधारित आतंकवाद की चर्चा हमे ऐसे मंचों पर नही करनी चाहिए परन्तु मोदी सरकार को ये समझना होगा की विदेश नीति सिर्फ टीवी स्टूडियो में बैठे राष्ट्रवादियों के चीखने चिल्लाने से निर्मित नही होती है , आप मीडिया मैनेजमेंट से सिर्फ चुनाव जीत सकते है , कूटनीतिक लक्ष्यों को हासिल करने के लिए अर्नब , रजत , सुधीर जैसे कलाकारों की आवश्यकता नही होती अपितु मनमोहन और वाजपेयी जैसे संजीदा और कूटनीतिक विशेषज्ञों के सुझाव और परामर्श की आवश्यकता पड़ती है जो शायद मोदी सरकार की सबसे बड़ी कुटनीतिक आवश्यकता है , अगर वो इस आवश्यकता को पहचाने तो .
नरेंद्र मोदी के अब तक सत्ता में आने के बाद चार बार अमेरिका की विदेश यात्रा पर जा चुके है और सिर्फ एक बार रूस की विदेश यात्रा पर गये हैं , सुषमा स्वराज भी एक बार रूस की विदेश यात्रा पर गयी हैं. हमे इस बात को ध्यान में रखना चाहिए की रूस के उप प्रधानमंत्री दमित्री रोगोजिन मोदी सरकार के गठन के बाद पांच बार भारत राजनयिक यात्रा पर आ चुके हैं .इतिहास गवाह है की संकट के समय सबसे ज्यादा सैनिक और राजनैयिक समर्थन सिर्फ एक ही देश का रहा है और वो है रूस. निश्चित तौर पर रूस भारत के साथ हो रहे 10 बिलियन डॉलर व्यापार के साथ संतुष्ट नहीं है और वो इस द्विपक्षीय व्यापार को सही मायनो में आगे बढ़ता देखना चाहता है अन्यथा रूस भी पाकिस्तान जैसे देशों के साथ भी आर्थिक और सैनिक समझोते करने को विवश हो सकता है .
 
 दिसम्बर 2014 में भारत रूस समिट में 100 बिलियन डॉलर के 20 समझोतों पर हस्ताक्षर हुए जो की एक एतिहासिक आंकड़ा है , येही नही साल भर बाद प्रधानमन्त्री श्री नरेंद्र  मोदी जी की रूस विदेश यात्रा में 16 समझोतों पर हस्ताक्षर हुए और अक्टूबर 2016 में गोवा में सम्प्पन हुई ब्रिक्स समिट में भी 16 समझोतों पर रूस और भारत के बीच हस्ताक्षर हुए . अब बड़ी बात ये होगी की क्या ये सब समझौते भारत और रूस के द्विपक्षीय व्यापार को 30 बिलियन डॉलर तक पहुंचा पाएंगे या फिर किताबी इतिहास बनकर रह जायेंगे .
 
रूस और भारत के बीच हुए रक्षा समझौते कहने को तो बहुत आकर्षक समझौते लगते हैं पर ब्रह्मोस मिसाइल के प्रोर्जेक्ट को छोड़ कर अधिकतर रक्षा समझोते में समय समय पर बजट की बढ़ोतरी , कलपुर्जों की कमी , निर्माण और वितरण में देरी एवं गुणवत्ता से जुड़े कई तकनिकी और आर्थिक समस्याओं का सामना भारत सरकार को करना पड़ता है जिसके चलते भारत को मजबूरन दुसरे देशों की तरफ रक्षा समझौतों के लिए रुखमोड़ना पड़ता है . अब भारत रूस की मित्रता एक ऐसे मोड़ पर पहुंच गयी है की जहाँ एक पुराना भरोसेमंद साथी साबित होने की बारी अब भारत की है , रूस की नही क्यूंकि रूस ने अन्य विकल्प खोजने शुरू कर दिए हैं .
 
अंत में दो मुख्य बिंदु हमारी विदेश नीति के लिए चिंता का विषय बन गये
१.रूस का गोवा में सम्पन्न हुए ब्रिक्स सम्मेलन में "पाकिस्तान विरोधी भारतीय खेमे" से नदारद होना
२, सार्क सम्मेलन का बहिष्कार करके , जाने अनजाने "पाक विरोधी " ना हो कर  "सार्क विरोधी " हो जाना और एक बड़े कूटनीतिक अवसर को अपनी ही खराब विदेश नीति से मार देना .
 
मोदी सरकार ये ध्यान रखे की कूटनीति और विदेश नीति चुनाव जीतने का पैमाना नहीं होती . ऐसी नीतियाँ दूरगामी राष्ट्रिय हितों को ध्यान में रखकर निर्मित की जाती है .
 
धन्यवाद ...

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